संग संग चली जाती थी,
बरसों का मेरा साथ,
कुछ दिनों से उसे उदास देखा करता हूँ.......
कहती है, सब को बड़ा अभिमान था,
मैं न निभा सकी, न चल सकी,
समय के साथ..........
मेरा भी यौवन जाता सा लगता है........!
ये परिवर्तन तो सार्वभौम है,
बस इतना ही कह सका, उस दिन.......
प्रकृति अनुरूप सरल शब्द कह
धीरे धीरे चली गई.........
फिर मिली एक दिन,
बोली.......
मेरी सौतने आधुनिक हैं,
और मेरी भावना शायद थोडी जटिल.......
तो क्या समाज और मेरा प्रेम
कम होने का यह कारण उचित है........
प्रत्युत्तर में शब्दों का अभाव था,
मैं मौन रह गया, फिर से एक दिन...........
मेरी अधर-प्रिया थी,
अब भी कभी कभी, मिलती है अधरों पर.........
पर अधरों का साथ छोड़,
मेरी लेखनी की सहभागिनी है...........
वह हिन्दी है...............
No comments:
Post a Comment