Thursday, July 10, 2008

प्रकृतिपालक/प्रक्रतिहंता

न ताप आतप ही रोक सका,
न वृष्टि से विनाश,
न सार्थक हो सके
न सफल मानव प्रयास.......

प्रकृति तो अप्रतिम, अतुलनीय,
मानव काया कोमल, कमनीय.......

मूढ़ है मानव, युगों से मदांध,
न समझा प्रकृति से,
ईश्वर का अप्रत्यक्ष सम्बन्ध.......

धर्म रटा तो सही, पर समझा नही,
समझता तो वट अब भी पूजे जाते...
तुलसी, कुलमाता......
पीपल, कुलदेव कहलाते.........

प्रकृतिपालक ने रची प्रकृति,
उत्तरदायित्व मिला मानव को.........
भाव मिले, विशेष अंग मिले,
जीवन के विशिष्ट रंग मिले,
पर न समझ सका उदारता, परमपिता की........

प्रकृतिहन्ता बन होड़ लेने चला,
सर्वशक्तिमान से,
दृष्टिविहीन मूढ़ खड़ा है तन कर,
बड़े अभिमान से..........

प्रकृति का दोष क्या, जो नष्ट हो,
मानव की यह इच्छा है,
प्रलय, परमात्मा की सेविका को,
आदेश मात्र की प्रतीक्षा है..............

समय है अभी भी,
मानव भूल सुधार ले........
घर-बाहर, मन-मस्तिष्क बुहार ले.........

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