Wednesday, June 29, 2016

NGO's और उन पर उठे प्रश्न

कई संस्थाओं में काम कर चुका हूँ और अब उनकी प्रवृत्ति भी समझ में आने लगी हैं। कार्यप्रणाली का आन्तरिक विश्लेषण अब उतना जटिल और असहज नहीं लगता। कई वर्ष इन संस्थाओं में कार्य करने के पश्चात गैरसरकारी संस्थाओं के बारे में मेरे जो विचार बने हैं, वो संभवतः संचालकों को स्वीकार्य नहीं होंगे.....
इनमे से कुछ मैं सब के साथ बांटना चाहता हूँ.......

१- अस्थिरता : अस्थिरता एक ऐसा कारक है जो संभवतः भारतवर्ष के हर गैरसरकारी संस्था का अंग बन चुका है खास तौर से वो जिन्हें हम NGO कहते हैं। मेरे दृष्टिकोण से इस समस्या का सबसे बड़ा कारण उस समझ का अभाव है जो NGO के कार्यकारी सदस्यों और प्रशासनिक सदस्यों के मध्य होनी चाहिए। जिन पाश्चात्य देशों में इस संस्कृति का जन्म हुआ उन्होंने न सिर्फ जन्म दिया बल्कि इसका समुचित विकास भी किया...यही कारण है की अमेरिका जैसे देश में कुल NGO की संख्या भारतवर्ष से कही कम है। इतनी अधिक संख्या होने के बावजूद लोग आज भी NGO में कार्य करने से कतराते हैं। मैंने जब इसका कारण जानने की कोशिश की तो परिणाम अपेक्षित ही थे। लोगो के अनुसार न तो इनका स्तर होता है न ही समय पर समुचित वेतन दिया जाता है। मेरे दृष्टिकोण से ये अस्थिरता सिर्फ इस लिए है क्योंकि NGO भारतीय संस्कृति नहीं है, भारत को इस संस्कृति की समझ भी नहीं है, और अगर है भी तो १०-२०% से अधिक गैरसरकारी संस्थाएं अपने प्रपोगंडा के अनुसार कार्य भी नहीं करती।

२- अनियंत्रित पंजीकरण एव कार्यप्रणाली : भारत में प्रतिदिन 800 से अधिक NGO पंजीकृत होते हैं, और ये प्रक्रिया कई दशकों से चल रही है...पंजीकरण की प्रक्रिया पर कोई नियंत्रण नहीं है। केवल एक संस्था के सदस्य ही जितनी चाहे उतनी संस्थाए पंजीकृत करा सकते हैं। मैंने जिन संस्थाओं में कार्य किया दुर्भाग्य से वो सभी समाजसेवा के हित में समाजसेवा करने के नाम पर बनाई गयी थी। इन सभी संस्थाओ के प्रशासन का ध्यान केवल धनोपार्जन पर ही रहा। न सिर्फ इतना ही बल्कि प्रत्येक संस्थाजनित कार्य में उस सुविधा अथवा मौके की तलाश की गई जिसमे अधिकाधिक धन बचाया जा सकता था, वह धन जो बच्चो, वृधो, सामाजिक अथवा राष्ट्रीय विकास के लिए था। धन को NGO में किस प्रकार खर्च किया गया है इसके लिए कोई जांच अगर होती भी है तो वो भारतीय बाबुशाही की भेंट चढ़ जाती है। भारतवर्ष में NGO के पंजीकरण की प्रक्रिया भी एक हास्यास्पद घटना है। किसी भी प्रकार बना हुआ एक दस्तावेज जो पंजीकरण के लिए आवश्यक है, एक समुचित नाम, कुछ जाली दस्तावेज जो सदस्यों के नाम, स्थायी पते के लिए आवशयक हैं के अतिरिक्त ५-६ हज़ार रुपये। इस सभी सामग्री के साथ NGO संस्कृति को भारत में होम कर दिया जाता है। पंजीकृत होने वाले NGO'S के अधिकाँश सदस्यों के नाम या तो जाली, मित्रों के या रिश्तेदारों के होते हैं। पंजीकरण की प्रक्रिया के दौरान ही हर उस बाधा का तोड़ उस दस्तावेज में ड़ाल दिया जाता है जो बाद में आ सकती हैं। भारत की न्यायिक व्यवस्था और कर व्यवस्था की पेचीदगी भी उन संस्थाओं की मदद ही करती हैं जो सिर्फ धनोपार्जन के लिए बने जाती हैं। कर मुक्ति एक सबसे बड़ा उपाय हैं NGO के माध्यम से धनोपार्जन करने का। न ही पंजीकरण के दौरान और न ही सक्रीय कार्यकाल में इस पर भारतीय प्रशासन ध्यान देता हैं। पंजीकरण कार्यालय से संपर्क करने पर पता चला की सरकारी अमला इस लिए इस प्रक्रिया में हस्तक्षेप इस लिए नहीं करता क्यों की पंजीकरण से लाखों रुपये की प्रतिमाह आमदनी होती हैं। परन्तु पंजीकरण के बाद इन संस्थाओं को दिए गए और निजी स्वार्थ में खर्च होने वाले करोड़ों सरकारी रुपयों के बारे में कार्यालय अधिकारी के पास कोई कोई जवाब नहीं मिला। मुझे अधिकारी की समझ के बारे में आश्चय हुआ जिसने लाखों के राजस्व को तो ध्यान में रखा पर करोड़ों के अपव्यय पर उसका ध्यान नहीं गया। 

३- अनुचित लोग, अनुचित कार्य: मेरे एक निकट मित्र ने कई NGO पंजीकृत करा रखे हैं, जिनके माध्यम से उन्हें प्रतिवर्ष लाखों रूपये की आमदनी होती हैं वो भी सरकार से। उनके द्वारा किये गए किसी भी कार्य का मुझे ज्ञान नहीं हैं। एक बार बात बात में मैंने जब यह पूछ लिया की बिना काम के आप को पैसा कैसे दे दिया जाता हैं तो उनका जवाब था.....साहब काम तो हम भी करते हैं, सारा दिन फ़ाइल ही तो तैयार करते हैं.....यह एक मजाक तो था ही पर कटु सत्य भी था। मैंने पुछा की आप के NGO में कार्य करने वाले लोगो को तो आप को वेतन देना ही पड़ता हैं...तो उनका उत्तर था......एक लड़का और एक लड़की ऑफिस में गुटरगूं करने के लिए काफी हैं दोनों को ४-४ हज़ार रुपये आशिकी करने के देता हूँ, बाकी फाइल में रहते हैं। मैंने जब उनसे कर्मचारियों के योग्यता के बारे में पुछा तो जवाब था की साहब NGO में काम करने के लिए ग्रेजुएट होना काफी हैं।

इतने सत्य बोलना भी बुराई करना ही हैं, ख़ास तौर से जब मैंने खुद ऐसी संस्थाओं में काम किया हैं। मुझे लगता हैं इतना काफी हैं........!

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