मुझ पर भी कोई कहे कविता,
चाहा था मैंने भी।
पर योग्य न समझा लोगो ने,
मुझ में भी तो धड़कन है,
और तड़पता प्रेम,
फिर क्यों मुझसे ही रूठे सब कवि,
बस यही सोच उद्विग्न बहुत था,
ह्रदय कह उठा भीतर से,
बस बहुत हुआ, अब कलम उठा लो..............
पंक्ति-पंक्ति पर मैंने अपना रोष निकाला
दिल में भरा गुबार था, सब कह डाला,
फिर मुझको ये बोध हुआ,
मुझसे भी अपराध हुआ।
"कुछ" कहने के प्रयास में,
जाने क्या क्या कह डाला।
अनगढ़ हूँ पर फिर भी,
मैं रहा निरंतर जूझ,
शायद बड़ी यही थी चूक,
कुछ "अनमोल रतन" काव्य के
मेरे मार्ग-दीप,
बने प्रेरणा स्रोत,
पर ना मिल पायी वो प्रतिभा मुझको,
न ही शब्दकोष।
अपने काव्य का स्तर जान,
जब हुआ सत्य से परिचय
अब और न करूंगा अन्याय कविता से,
लिया है अन्तिम निर्णय।
1 comment:
bhut hi sundar rachana.likhate rhe.
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