Thursday, December 27, 2007

अनछुई


भाव जब कविता बने,
कुछ झूठ आ मिले,
रिश्ता जोडा,
मूल बदल गया,
कविता का रुप वो न रहा,

कुछ था जो उभर नही पाया,
या कवि ने उभरने ना दिया,

सब ने दर्द छुपा रखे हैं,
अपनी अपनी कविता में,

तो क्यों न कहूं,
पिटारी भावों की,
सपनो की,

इसी कविता को।

जब भी खुली,
किसी और के हाथ,
उसने अपना ही चेहरा देखा,
किसी और की कविता में,

सब को अपनी सी लगी,
सब का दर्द एक,
असंतोष,
कभी अपनों से कभी गैरों से,

वो मिली मुझे,
बोली मेरा रुप लौटा दो मुझे,
झुठलाओ नही मुझे,
निकलने दो आंसुओं कि तरह,
प्राकृतिक और अनछुई,

मैं बदल जाउंगी,
तो मुझे दर्पण कौन कहेगा?
मेरा दर्प कहाँ रहेगा?

कविता ने दर्पण बन जाना चाहा,
मैंने बन जाने दिया,
सब को अपनी सी लगी,
प्राकृतिक और अनछुई।

1 comment:

वर्तिका said...

"रिश्ता जोडा,
मूल बदल गया,"

waah! बहुत ही सुंदर और सच्ची रचना... गहरी बातें कह जाते हैं आप अक्सर...