Monday, July 27, 2015

राब्ता

मुझमे बसी अपनी ही धड़कनो को
जानता नहीं
इतना बदल गया है आज
की अपने ही अक्स को आईने में
पहचानता नहीं

अब भी कर रखा है मुब्तिला साँसों में
बस एहसास नहीं
भरम होता भी है कभी
तो मानता नहीं

मैंने ऊँगली से इक दफा
जुल्फें सहेज दी थी
नफ़रतन वो आज भी
खुली लटें संवारता नहीं

दिल में उठती तो होगी हूक सी
पर पत्थर रख लेता है
जुबा से कभी पुकारता नहीं

मरता है तिल तिल मुझ को सहेजे
दिल के इबदतखाने में
पर मेरी आखिरी याद को
मारता नहीं

यार ये राब्ता भी क्या राब्ता है
मैं भी भूला नहीं
और तू है की मानता नहीं...!

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