Monday, July 27, 2015

एक गाँव की मौत भाग 1

गाँव की प्रौढ़ युवा गृहणियां सब मिल कर किसी रविवार को (जब बाजार में आमों की पहली खेप आ चुकी होती) बुलावा कर "भौरियां डालने" का कार्यक्रम बनाती थीं। छोटे बड़े बच्चे हुलसते हुए माओं के साथ सुबह 10 बजे के करीब हलकी गर्मी में घरों से निकल बाजार में झुण्ड बना लेते। साढ़े दस तक माओं, बच्चों, गायों, कुत्तों और बिल्लियों का ये झुण्ड गाँव से 1 किलोमीटर दूर माता के मंदिर के प्रांगण में पहुचता जहाँ आम महुआ नीम बरगद और पीपल के पेड़ों का एक विरल झुरमुट था। पेड़ ऐसे लगे थे की बीच में छोटा सा गोलाकार मैदान था।

महिलायें बैठ कर उपले सुलगातीं उस पर गेहूं के आटे के मोटे हाथ से बने टिक्कर डालतीं जिन्हें "भौरियां" कहा जाता था। खरी सिकी भौरियों को जब दादी और माँ घी के कटोरे में डुबो कर बगल में बैठे बच्चों के हाथ में पकड़ातीं तो सोंधी खुशबू पा कर बच्चे निहाल हो जाते।

पतले रस वाले दशहरी आम बच्चों को भौरियों के साथ दिए जाते तब तक गायें और दुसरे जानवर आश्चर्यजनक समझदारी से प्रांगण के बाहर बैठे रहते। बच्चों के जी भर भौरियां और आम खा लेने के बाद माएं और दादियां उठ कर प्रांगण के किनारे किनारे बैठे जानवरों को कच्चे आटे की लोई या फिर पकी हुई भौरियां और कभी कभी तो घी में डुबो कर उन जानवरों को खिलाई जाती। बच्चे इस काम में महिलाओं की मदद करते थे।

न जाने कहाँ से महिलाओं के पास इतना पर्याप्त सामन होता की सब का पेट भर जाता था। बच्चों और पशुओं को खिला कर वे स्वयं खाने बैठतीं।
3 बजे तक यह कार्यक्रम चलता। बच्चे ऊँघने लगते तो माताएं उनको अपने आँचल मे ढक कर वहीँ प्रांगण में 1 घंटे सोतीं। 

4 बजे के करीब ये झुण्ड वापस गाँव आता। कितना जीवन था उन 4-5 घंटों में मैं बता नहीं सकता और आप समझ नहीं पाएंगे। बस इतना जानता हूं की गाँव को आधुनिकता, राजनीति और नशे की लत लगी है 15-20 साल से।

धीरे धीरे मेरा गाँव जरूर मर गया है लेकिन मुझे भौरियों का स्वाद, सोंधी खुशबू और दादी के हाथ का निर्मल स्नेह अब तक याद है।

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