Monday, July 27, 2015

एक गाँव की मौत भाग 2

सावन भादों के महीनों में गाँव जब सोंधी मिटटी की खुशबू से बेतहाशा महक रहा होता और बच्चे हर अतरे चौथे रेनी डे की छुट्टियां मना रहे होते हमारे गाँव और जिले के शायद हर गाँव में एक ऐसे त्यौहार की तैयारी चल रही होती थी जो बेहद ख़ास था। क्यों ख़ास था आगे बताऊंगा।
मिट्टी के पके हुए छोटे मध्यम और बड़े आकर के टूटे घड़ों में निचले आधे भाग में खेतों की उपजाऊ मिटटी भरने के बाद औरतें एक तिथि विशेष पर उसमे जौ के दाने डाल कर मिट्टी भिगो कर पूजा की अलमारी के बगल में रख देतीं। 7 दिन में कोपलों से निकल कर जौ के पौधे सुन्दर घास की शक्ल ले लेते थे। यह कार्य मुस्लिम समुदाय को छोड़ कर सभी सम्प्रदायों में बराबर होता था
..................तिथि को गाँव की अधिकांश औरतें उन टूटे घड़ों में उगी जौ की घास को (जिन्हें जवारे कहा जाता था) सर पर रख कर झुण्ड में निकलतीं...! ढोल और नगाड़े वाले महिलाओं के आगे चलते और उनसे भी आगे चलते करतब करने वाले...!
करतब करने वाले कहीं बाहर से नहीं आते थे बल्कि गाँव के ही होते थे..! गाँव के बाहर माता के मंदिर के प्रांगण में एक नीम का पेड़ था जिसके नीचे रखी मूर्तियों के इर्द गिर्द ऐसे त्रिशूल गड़े होते थे जिनका बीच का फाल कई फीट (२ से ले कर १० फीट या उस से भी अधिक) लम्बा होता था....इन त्रिशूलों को सांग कहा जाता था, जब सांग गडी होती थी तो तीनो नुकीले भाग ऊपर रहते थे लेकिन छोटा आधार जमीन के अन्दर होता था! लोहे को गाँव में लुहार न जाने कैसे परिशोधित कर इन्हें बनाते की साल भर खुले में गड़े रहने के बाद भी इनपर जंग का धब्बा तक नहीं लगता था..! त्रिशूलों को मंदिर प्रांगण उसी रोज़ सुबह उखाड़ लिए जाता जिस रोज़ महिलायें जवारे ले कर निकलती थीं! उखाड़ने से पहले इन सांगों की पूजा की जाती, उन्हें तिलक लगाया जाता तेल चढ़ाया जाता! महंत अपने अंगूठे में एक चीरा लगा कर सांगों को रक्त से तिलक करते थे!
बाज़ार में ढोल नगाड़ों की आवाज़ और चारों ओर से घेरे खडी सैकड़ों लोगों की भीड़ के बीच गाँव के युवक आगे आते, महंत सांग के बीच के सबसे बड़े फाल के नुकीले सिरे को पूजा के थाल में रखे दिए से गरम करते, ठंडा हो जाने पर सांग को युवक के दोनों गालों के आर पार भेद देते, जब सांग एक गाल से हो कर दुसरे से निकल जाती तो दुसरे सिरे पर एक जंगली फल लगा दिया जाता! इसे सांग चढ़ाना कहते थे! हम हमेशा ये सोचते थे की सांग चढ़वाने में दर्द क्यों नहीं होता और खून क्यों नहीं निकलता.....? इस सवाल का जवाब कभी मिल भी नहीं पाया...!
सांग के एक सिरे पर ये युवक होता जिसने गालों में भिदी हुई सांग दबाई होती तो दुसरे तरफ कोई सांग को पकड़ कर संभाल कर चलता! जिस युवक ने सांग चढ़वाई हुई होती वह नृत्य करता हुआ चलता जबकि दूसरा उसके साथ सांग सम्हाले चलता...!
कुछ युवक तलवारबाज़ी के करतब दिखाते हुए चलते तो कुछ लाठी के, कुछ प्राचीन अस्त्रों के करतब दिखाते...! इन करतबों में मुस्लिम सम्प्रदाय को छोड़ कर थोड़ी देर के लिए सब एक हो जाते, क्षत्रिय, ब्राम्हण, यादव, घोसी, छिरकहा, लपटहा, धानुक, नाई  लुहार, चमार, भंगी, सब के सब थोड़ी देर जात पात भूल कर सांग चढ़वाते....! हम सब हतप्रभ हो जाते जब देखते की मखंचू चमार की सांग पांडे या तिवारी के लड़के ने उठा रखी है! हमें समझ नहीं आता था की ऐसी छुआछूत का क्या मतलब है जो आज के दिन ख़त्म हो जाती है जब मेरे चचेरे भाई भंगियों के लड़कों से लठैती (लाठी से लड़ाई का नृत्य) करते...! खैर जो भी था बहुत सुखद होता था क्योंकि इस दिन चमार और भंगियों के लड़कों को छू लेने पर कोई गाली नहीं देता था...(साल में एक दिन ही सही पर जात पात मिट जाती थी)...!
बाज़ार में ऐसे करतब दोपहर बाद लगभग तीन या चार बजे बजे शुरू होते ३-४ घंटे चलते और छिटपुट अँधेरा होने तक सिमटने लगते उधर महिलायें करतब शुरू होते ही गाँव के बाहर बने तालाब की ओर चली जाती थीं, छोटे बच्चे उनके साथ तालाब चले जाते थे जबकि बड़े बच्चे और अन्य युवा खड़े हो कर करतब देखते रहते!
महिलायें तालाब में जवारों को प्रवाहित कर देती थीं जिसे कहते थे "जवारे ठन्डे करना" देशी भाषा में इसे जवारे सिरवाना भी कहते थे.....! जवारे सिरवाने के बाद महिलायें वापस घर आ कर "पक्का खाना" बनाती थीं जैसे पूड़ी, कचौड़ी, खीर, आलू टमाटर की सब्जी, पुए, गुलगुले, बेड़ई इत्यादि...!
उधर करतब समाप्त कर लोग अपने अपने घर चले जाते, पुरुष शौच से लौट कर आते हाथ मुह धोते और खाना खाते! ध्यान देने योग्य बात यह थी की कोई घर जा कर नहाता नहीं था बावजूद इसके की नीची जाति के लोगों की सांग उठा कर आये होते थे...!
जात पात से बहुत ऊपर उठ चुके  इस एक दिन को गुज़रे हुए कई साल हो चुके हैं जब से ये लौट कर नहीं आया.........लेकिन हर साल आने वाला वो दिन आज तक मेरी स्मृति में जीवित है...!

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