Friday, April 4, 2008

हैं ना

ख्वाब-ओ-ख्याल बुलबुलों जैसे बनते बिगड़ते हैं,
किसी का छोर किसी के किनारे से नही मिलता,
बस अलग थलग, मैं मुस्कुराता हूँ,.......
बस यूँ ही.........
सुबह उगे कभी दिल बुझता है,
कभी शाम ढले रंगीनी आती है,
तेरी याद आती है और कहती है मुझसे,
तुझे इश्क है न.............?

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