आक्रोश, (वो भी निजी दिनचर्या और व्यवसाय के मध्य हुए द्वंद से उत्पन्न) मुझे रोज़ खिन्न कर देता है..............परिणिति तो प्रारब्ध की व्यवस्था है..............मैं माध्यम ही हूँ.....पर बोध है मुझे हर स्थिति के परिवर्तन का...............यह सारा विश्लेषण कविता का रूप ले कर चला आया.............
अब तो बस, घर से दफ्तर,
दफ्तर से घर का सफर.......
यही मेरा अपना समय है,
जब मैं ख़ुद को ढूँढा करता हूँ...............
विषय तलाशा करता हूँ,
जिसे दर्पण बना कर,
ख़ुद को देख सकूं,
देख सकूं, कि मैं अब क्या हो गया हूँ.................
कभी राह चलते हर शख्स में,
ख़ुद को देखता हूँ............
उसके अक्स में,
हैरान, परेशान, जूझते हुए.....
कभी खिलखिलाते कभी टूटते हुए.......
घरो में, आफिस में, चुन दी गयीं......
जिन्दा जिंदगियां.......
जिनमें से कुछ रजामंद,
हँसते हुए, इस सज़ा के लिए..........
वातानुकूलित दीवारों से,
सट कर जीती ये जिन्दगी......
मेरे लहू की गर्मी को सोखे लेती है,
जाने क्या बैर इन दीवारों को,
मेरी ऊष्मा से..............
अपने अंतस के मर जाने का,
विचार मारता है,
रोज थोड़ा थोड़ा....................
किसी और में सुलगे न जले,
कोई भी न चाहे जीना,
भले न कोई साथ चले.......
मुझमे विद्रोह सुलग उठा है,
व्यक्तिगत स्वतंत्रता के आन्दोलन को.............
बस समझाना है अपने मन को........
कुटिल अर्थव्यवस्था ,
अपनी माँ राजनीति से मिल कर,
मुझे और क्यों छले.........?
क्यों न उगे विचारों का सूरज,
क्यों न भावनाओं का कारोबार चले...............
2 comments:
wah dost bahut achhi!! aapne bas sabke mann ki baat kah di hai..maza aa gaya..
achi tarah manodsha ka varnan kiya apne..acha laga pad kar
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