कुछ चमकीले से बदन,
कुछ रेशमी सी बाहें.....
मेरा दिल जला देती हैं........
जुनूनी बना देती हैं,
मेरा चैन-ओ-सुकून छीन,
बेदर्द सज़ा देती हैं...............
सुर्ख रेशमी होठों के प्याले,
छलकते हैं, रोज़ मेरे आगे........
लुभाते हैं, बुलाते हैं.......
छलावा मान के,
बचता आया अब तक............
पर तुमसे मिलकर,
ख़ुद पे काबू नही.........
वो बे परदा रातें कुछ,
कुछ बे पैरहन दिन.......
मेरे जेहन को मथते रहते हैं,
मेरी तमन्नाओं को,
और तीखा बना कर...............
अब बदन की,
गीली सी लकड़ी से..........
धुंआ उठने लगा है,
भीतर कुछ सुलगने लगा है...........
इस से पहले,
की आग कुछ ज्यादा ही,
सुलग जाए..........
क्यों न एक और,
बेपर्दा रात हो जाए.........
No comments:
Post a Comment