Wednesday, June 10, 2009

खाली हाथ नही आया............

मैंने तीन महीने समंदर किनारे गुजारे, अब जब वापस लौट आया हूँ तो सोचता हूँ क्या खोया क्या पाया.......इस उधेड़बुन ने कब कविता का रूप ले लिया पता ही नही चला.........



भरे समंदर को छू कर,
क्या खाली लौट रहा हूँ मैं.........

लहरों ने टकरा कर पैरों से,
सोख लिया था कुछ........

नंगे पाँव रेत पे चलते चलते,
न जाने क्या गिरा दिया था..........

शायद...........मेरे भीतर का डर.........

सीपियों की खनक ने,
कुछ इशारा तो दिया था.........

फिर भी खो जाने दिया.........
सागर किनारे मुस्कुराता हुआ,
मैं आगे बढ़ गया............

अजीब है,
खोया है.....फिर भी खुश हूँ..........

खोने पाने के एहसास से,
उबर कर मैं बस बढ़ता रहा.........

जज्ब करता रहा, समंदर को,
कभी बुलबुलों को,
कभी रेत को छू कर............

नदी बन कर,
सारी वितृष्णा बहा दी...........

सारे उद्विग्न पल दे दिए,
अथाह विस्तार को..........

विकृत प्रकृति के अंश दे दिए,
विस्तृत प्रकृति को..........

शुद्ध, स्वस्थ विचारों को,
संजो कर.......

धुली धुली स्मृतियों को समेटे,
सागर सा स्थिर हूँ.......

गहराई ले के लौट आया हूँ.........
सुकून है कि खाली हाथ नही आया...............

1 comment:

वर्तिका said...

aah! loveable..... too gud...:) aapki rachanein padhkar hum bhi kabhi khaali haath nahin laute... humehsa ek muskuraahat saath hoti hai... kabhi khushi to kabhi gam ki.... :)