दिल की खलिश जब पूरे शबाब पे निकलती है तो लफ्जों का तरन्नुम बदल जाया करता है तल्खी में, दौर-ऐ-तन्हाई का बयान-ऐ-दर्द-ऐ-दिल यूँ हुआ.........
जेहन में रेंगते,
अतीत के कुछ पल,
कीडों की मानिंद,
बाहर निकल रहे हैं............
एक सस्ता सा कलम,
कीडों को उठा उठा कर,
रख रहा है, कागज़ पे........
सालों से ये कीडे,
मुझे कुतर रहे हैं.....
मेरे भीतर का सब कुछ.........
कुछ बासी गन्दी यादों में,
पलते रहे ये घुन....
जिन्हें बस कुछ साल लगे हैं,
मुझे खोखला करने में,
थोड़ा थोड़ा, रत्ती रत्ती.........
और हर रात मार देती है मुझे,
पड़ा रहता हूँ किसी ठंडी लाश के जैसा.......
ख्यालों के बूढे, डरावने,
गिद्ध रोज़ नोचते हैं,
मेरे जिंदा जेहन को............
कुछ काली परछाइयां,
कुतरती हैं हर रात मुझे..........
मैं हर रात के आगे,
दोजानू हो के, गिडगिडाता हूँ,
सारी रात.........
बस दो पल सुकून के लिए..................
No comments:
Post a Comment