Monday, October 21, 2013

समर्पण....!

मैं हूँ या,
दंभ ही दंभ है...?
या सब कुछ है,
एक स्वतंत्र अस्तित्व के सिवा?

ईर्ष्या ही ईर्ष्या है,
और बस यही है,
अकाल मृत्यु....?

संतोष है,
धन ही धन है...?

निरर्थक विचार हैं?
या बलिवेदी पर समय...?

विचित्र है, विचित्र है,
असमंजित भी,
सूत्रहीन भी....!
प्रथम विचार परस्पर,
मेरा है की तुम्हारा?

और देखो अंतरिम भाग,
स्वच्छ निर्मल,
अकलुषित, परिमार्जित..!

शून्य में विलीन होना क्या है?
समझ गया हूँ...!
प्रेम है.....और बस प्रेम है...!

जीवन को इतना ही समझा हूँ,
कि तुम हो, तुम हो और तुम हो...!

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