दिल्ली में खुली छत,
और कनोपियों की मुंडेरे,
बड़ी महंगी हैं।
एक किराए की मुंडेर से,
एक घर बनते देख रहा हूँ,
कुछ रोज़ से....।
और तभी से कविता,
उलझी पड़ी है,
उलझी सोच से.....!
क्या ये कारीगर,
ईंट पत्थर, सीमेंट के सिवा,
प्यार भी मिला जाते है,
सीली और गीली दीवारों में....?
जो बरसों रिस रिस कर,
कुनबों के रिश्तों को,
चिपकाए रखता है....?
कहीं ये मजदूर ही तो नहीं,
जो चुन देते हैं,
अपनी मेहनत,
यमुना की रेत के प्लास्टर में...?
जो मेरे जैसा कामगार,
हर शाम टूटी हिम्मत ले कर,
ऐसे ही किराए के घर में,
मरम्मत करता है....।
अगली सुबह,
बलि भेंट की खातिर
अपने इरादों की....!
कहीं ये कन्नी वसूली,
की हलकी चोट,
वजह बनती हो.....?
बच्चे, जो अनोखे ख्वाब,
देखते हैं....इन माचिस के,
डिब्बी जैसे कमरों में...?
उत्सुकता मुझे,
कारीगर के पीछे पीछे,
उसके आशियाने तक,
खींच ले गयी आज.....!
रईसों के आशियाने,
रचने वाला,
रूखा सूखा खा,
तिरपाल के नीचे,
सोने की तैयारी कर रहा था...!
लौट रहा हूँ.....!
आज शाम फिर,
सीली हैं आँखें..!
दिल्ली भी निष्ठुर है....।
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