न तुम जन्मते,
न मुद्रा ही हुई होती,
खड़ग से भी,
महत्त्वपूर्ण....।
अपनी गुप्त वीथिकाओं में,
न रचे होते ,
तुमने ये विचार,
तो भोजन सुलभ होता..।
न श्रीमूल्य की महत्ता,
न सुवर्ण भारी होता,
मानव जीवन पर...!
शास्त्र-वेद ही होते,
कदाचित प्राथमिकता....।
किन्तु श्रीशास्त्र में,
इतना भार कहाँ से लाये....।
मानो अथवा नहीं,
विश्वयुद्ध के,
प्रणेता तुम ही थे...।
अप्रत्यक्ष ही सही...!
सहस्राब्दी परांत,
यह दोष.....?
पूर्ण नही,
अंशदोष तो है ही...।
क्या तुमने कभी,
कल्पना भी की थी...?
तुम्हारा विचार,
बनेगा, मानव अस्तित्व का,
गूढ़तम आधार....।
आह....!
तुम्हारी कल्पना,
पूर्ण हुई होती...!
तुमने स्वहस्त,
अपनी रचा,
अग्नि को आहूत की होती।
परन्तु तुम चाणक्य थे....?
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