Tuesday, January 28, 2014

काली सी इक बाती है...........!






इतनी उजली कि जहाँ भर,
रोशन कर डाला..........!

पर दमकती लौ के बीच भी,
काली सी एक बाती है............!

थकान से यूं तो हर शाम दमकती है,
बदन की लौ.......

पर इसके बीच भी बसी है,
विछोह की परछाई..

कोशिशें अब भी उतनी ही संजीदा हैं,
पर नींद कहाँ आती है.........?

न जाने कहा से ढूढ़ लिया है,
मुसीबतों ने इस घर का पता,
एक उधर से जाती है,
एक इधर से आती है...........!

दमकती लौ के बीच भी,
काली सी एक बाती है........!

जिंदगी इस कदर होगी खुशमिजाज़,
अंदाजा ही न था,
एक दफा मुस्कुराता क्या हूँ,
ये बरसों मज़ाक उडाती है...!

दमकती लौ के बीच भी.....!

बारहा इतना सुकून है,
चाँद को नमूदार देख,
हर अमावास की रात...!

कि तुम्हे भी शिद्दतन,
मेरी याद तो आती है.........!

बतौर इलाज़ बना ली थी मैंने,
दिन चढ़े मह्बे-ख्वाब देखने की आदत,
कमबख्त बिस्तर पे अकेली मेरी रात,
हर वहम झुठलाती है.......!

हर दमकती लौ के बीच,
काली सी इक बाती है......!

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