Monday, June 24, 2013

क्यों.....?

सोचता हूँ,

फिर और सोचता हूँ,
अजीब अजीब सी बातें....?

हाँ सब सामान्य लोग,
यही कहते हैं.....!

तो फिर और सोचता हूँ,
सिलसिलेवार.....!
सोचना ही पड़ता है।

अपने अस्तित्व और,
मेरे लिए....
तुम्हारी दीवानगी के बारे में!

धर्म की भंगुरता,
और लोगों के....
इस पर दृढ विश्वास पर।

पानी में रंग क्यों नहीं,
होता तो क्या पीते हम इसे,
इतनी ही सहजता से.....?

सोचता हूँ...

क्या दिल भी सोचता है?
या सिर्फ दिमाग..?

मय की मदहोशी थी खुशगवार,
या तुम्हारा प्यार...?

लोग मर जाते हैं....क्यों?

न मरते तो....?

अच्छा ही है..!
वरना हर रोज़ मरना पड़ता!

लो एक और शाम,
बेहूदगी से क़त्ल हो गयी!

सामने ही आईने में,
ख्यालों से गुत्थमगुत्था,
मेरी शक्ल हो गई....?

लो अब फिर से,
मैं सोचता हूँ.....!

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