Wednesday, September 9, 2009

बाद-ऐ-हयात......

इक एहसास बाद मरने का, पुरसुकून लगता है, शायद अब तभी आराम मिले पर.......................ये कमबख्त उम्मीदें..................

ख़त्म हो गयीं,
इश्क की सब शोखियाँ,
उठ गई महफिल,
जाम क्यों छलका.......
साकी की तरफ़ से,
अब ये शरारत क्यों है............?

कत्ल कर दिए हैं,
अरमान सभी,
तो फिर किसकी है ये............
नशेमन में,
बू-ऐ-बगावत क्यों है...........?

दफ्न कर देता हूँ.........

उठ उठ के आ जाती है,
इस उम्मीद को जिन्दगी से,
इतनी सलाहत क्यों है..........?

पुरसुकून है, जेहन बाद मरने के,
पर कहीं तो खलबली मची है.........

कमबख्त इस मुर्दा जिस्म को,
इतना जीने की आदत क्यों है.............?

3 comments:

वर्तिका said...

waah! waah! waah!

अपूर्व said...

भाई इसका जवाब अगर मिले तो हमें भी बताना..
बेहतरीन रचना के लिये बधाई

प्रिया said...

waah ..kamaal likha hai aapne