Thursday, December 18, 2025

तुम क्यों आई हो?

 उपेक्षा की सूखी लकड़ियों पर 

सब भावनाओं को 

तिरोहित कर दिया था मैंने

आह, कि सब आर्द्र हो गया


ज्वार जो काट देता था 

मेरे अस्तित्व के बांधों को 

और जो लुप्त हो गया था 

अंतहीन समय में कहीं

लौट आया है 


सूर्योदय

जो कभी प्रणय से

द्वंद तक रूपांतरित

हो चुका था

फिर क्यों होने लगा है?


और जिन कपाटों पर 

मैंने धूल जम जाने दी,

उनके खुलने की

आहट डरावनी है


हृदय और उदर के मध्य 

फिर से पीड़ा हो रही है कहीं

और इस बार इसमें

असहजता भी है


निस्संदेह तुम

जीवन की बयार हो

मेरे होने और न होने

के आर पार हो


मुझे डर लग रहा है,

उलझन है, उल्लास है,

उत्साह है, अपेक्षा है,

और फिर से डर है।


तुम क्यों आई हो?

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