बच्चों, एक औरत,
दीवारों खिड़कियों के दरम्यान,
एक आदमी भी, रहता था
उलझनों, खर्चों, तानों, उलाहनों
तीज त्यौहार, सर्दी गर्मी,
बच्चों की ख्वाहिशों के बीच
इक आदमी भी रहता था
हर बात पे वो कहता
ठीक है कोई बात नहीं,
हर चोट पे कहता, भर जायेगी
कांच के मानिंद, जो खुद रोज टूटता
एक आदमी रहता था
रंगीन अलमारियों, रोशनियों,
बच्चों की हंसी ठिठोली के बीच
एक बेरंग आदमी रहता था
वो घर जिसमें सामान भरा था सब
अरमानों से खाली दिल लिए
एक आदमी रहता था
बिगड़ गए लम्हात पे,
खुद के, दूसरों के हालात पे,
सब ठीक हो जाएगा, कहता था
उस घर में इक खंडहर सा
आदमी रहता था
जिसको फख्र था घर पे दावे का,
जो दरख़्त था, सख़्त था,
कैसे हवा में घुल गया, वहां
वो जो आदमी रहता था
औलादों की नजर, मैं बुरा न हो जाऊं,
जिसको फिक्र थी अखलाक की,
शराफत पसंद था, मासूम था
इक आदमी रहता था
शोर से पैदा हुए सन्नाटे में,
आफिस के मुनाफे घाटे में,
फल, सब्जी, तेल, आटे में,
लाड़ दुलार के बीच,
बच्चों के मारे चांटे में,
ढूंढता था अपना भी वजूद,
वो, जो उसी घर में,
एक आदमी रहता था
लोग कहते थे, उसमे कुछ अना थी,
घर से आफिस, घर का आदी था,
जिन्दगी की बुझती लौ,
उसमे शायद अब भी रवां थी,
बोलता था कभी कभी,
शायद उसके के भी मुह में ज़बां थी,
ऐसा कोई उस घर में आदमी रहता था,
सुबह उसके बिस्तर पे सलवटें
अब भी मिलती है
उसी के जैसी इक परछाई का
घर से अब भी, आना जाना है
कैसे ताल्लुक बदल गया, घर से उसका
वो जो वहां आदमी रहता था
कैसे उसका होना, न होना हो गया,
कैसे गोया पूरा शख्स फना हो गया,
वो अपने ही घर में मना हो गया
जहां वो रहता था,
एक आदमी रहता था
कैसे वक्त के साथ वो शफ़ाफ़ हो गया?
जिसने इब्तिदा ए ठिकाना किया
क्या हुआ वहां, धीरे धीरे?
शायद, वहां एक आदमी रहता था?
No comments:
Post a Comment