Sunday, May 1, 2016

हालात

बहाने से ले के हिजाब की ओट
बैठी है मेरी मा, के चेहरे पे
बाप की मर्दानगी के निशान दिखते हैं

मेरे मोहल्ले में भी,
खुदा नहीं दिखता,
खुदाई नहीं दिखती
सिर्फ हदीस-ओ-कुरआन दिखते हैं

ये कैसा मज़हब है?
और कैसा मुल्क है
हैवान की फितरत में डूबे
इंसान दिखते हैं

उनको अय्याशी,
हमें मजदूरी की आदत
लेकिन वो,
हमारे दड़बे की रौशनी से
परेशान दिखते हैं

हक़ की बात न करो बुर्कानशीनो
मज़्ज़म्मत न बुलाओ अपनी
अजब अदालतें है इस मुल्क की
यहाँ एहसान में लिपटे,
खूनी फरमान लिखते हैं

यूं गिरियां, तोहमतें न लगा
चुप रह, इक इब्रत क्या काफी नहीं
तेरे ज़ूद एहसास के खातिर
क्या तुझे नहीं इस मुल्क के
मुर्दा जवान दिखते हैं

इस अब्तर नस्ल की खैर
लेने न आएगा कोई
हमसे ले गए जो बुलंदियां
उनको पैरों तले जमी अब याद नहीं
सिर्फ आसमान दिखते हैं

आओ गमख़्वार हो जाएँ
हम एक दूजे के ही
कहाँ अब इस गोशे में
वो मज़हब के ठेकेदार
वो हुक्मरान दिखते हैं


शब्दकोष मदद के लिए

गिरियां- चीखना चिल्लाना
इब्रत-डांट
ज़ूद-तुरंत
अब्तर- नष्ट, मूल्यहीन
गोशा- कोना, एकांत
गमख़्वार- दिलासा देने वाला

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