लो बुझा दो साँसों का दीपक,
यदि तुम्हे प्रकाश मिले.....!
मैं आखिर करूँगा भी क्या,
नश्वरता का पर्याय बनना ही,
अंततः मेरा भाग्य....!
तो निस्संदेह, निरंकुश हो,
अपनी महत्त्वाकांक्षाओं में,
मुझे आहूत करो....!
यदि हो सके तो मेरे प्राण ले,
अपनी ईर्ष्या के कुटज को,
सिंचित प्रफ्फुल्लित करो...!
अकारण ही मैं भयग्रस्त रहा,
अब तो स्वयं समर्पित हूँ.....।
अनाधिकार पर लोभ,
और समय व्यर्थ करना,
अब और क्यों हो....?
क्यों न तुम्हे भी ज्ञात हो..?
कि मेरा वर्तमान,
तुम्हारा भी भविष्य है.....!
यदि तुम्हारी मूर्खता,
मेरे धैर्य से अधिक,
प्राणवती हुई....!
तो निस्संदेह शूरवीर बन,
आत्मसंतोष का गान करोगे...!
अन्यथा सत्य से परिचय,
हुआ ही समझो...!
ग्लानि बस इतनी ही है,
की तुम मानव हो,
और....!
मूर्खता के चिरायु पर्याय।
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