तुमने लगायी थी आग,
तुमको ही बुझानी होगी
किसी की लगाई....!
अब कोई और नही बुझाता...!
बड़ी बेसब्र है,
पल पल में आती जाती है,
कमबख्त साँस को,
कुछ और नहीं आता....?
तुम जो थे,
न जाने क्या बेचैनी थी,
बड़ा सुकून आता था
अब और नही आता...!
दीवारे टटोल के आज भी,
पहुचा हूँ जानिब-ए क़िबला,
रास्ता अभी भी,
कोई और नही बताता...!
सबके ज़ख्मो पे,
तेरी नेमत का,
मरहम भी क्या मुकम्मल था....!
खुद का हमदर्द,
जब से बन पड़े हैं सब
किसी की चोट तेरे यहाँ अब,
कोई और नही सहलाता...!
इतनी नफरत-ओ-रंजिश,
देख कर भी,
न धड़का दिल इक बार....!
अपने गुनाहों में,
मुब्तिला शख्स को,
खौफ-ए-खुदा,
अब और नही डराता....!
सीना ठोक खुद को,
कहने वालो फ़रिश्ता....!
मैंने देखी है हकीकत,
तुम्हारी ड्योढ़ीयों के पार.....!
चाहो तो कह लो बुज़दिल,
जब से,
पाक वतन में सुनी हैं,
हिजाब तले चीखें.....!
अंतस अब उस ओर,
और नहीं जाता...!
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