Wednesday, April 14, 2010

एक और घाटी........

हम तो दरिया हैं..........
हमें अपना हुनर मालूम हैं........

तुम कहते न थकते थे........

मुझसे हो कर बहते रहे,
अपना हुनर दिखाते रहे.........

हर उस तूफानी बारिश को,
महसूस किया मैंने.............

जब तुम मेरे अस्तित्व में,
अचानक आ जाने वाली,
बाढ़ जैसे आते रहे, जाते रहे..........

कितने ही ख्वाबो के दरख़्त,
तुम्हारी उग्र धारा को,
समर्पित कर दिए...........

तुम हर बार..........
एक नए आवेग को ले कर,
उफनते, गरजते आते रहे..........

सहमी हुई वादी जैसा,
मैं बस देखता रहा........
कुछ और दरख्तों को,
फना होते...............

कितनी ही घाटियों को,
जन्म दिया हैं तुम्हारे,
उग्र आवेगों ने.........

मेरे अस्तित्व की,
ज्यामिति को नाप जोख कर,
यूं बेडौल किया हैं........
कि पथरीली घाटी में,
उर्वरता दुर्लभ ही हैं...............

बेमौत मारा जाए,
ये सोच, नया कुछ.....

मै उगने नहीं देता,
पुराने तुम रहने नहीं देते............

ये बंजर वीरान घाटियाँ,
हर शाम तुम्हे याद करती हैं...........

अपने अँधेरे सन्नाटे को.........
कम्बल बना कर,
खुद से लपेटे उदास पड़े पड़े......

फिर से किसी उग्र आवेग के,
आगमन की प्रतीक्षा में..........

के तुम आओगे,
एक और दरख़्त को ले जाने,
एक और घाटी को, जन्म देने..............

2 comments:

gyaneshwaari singh said...

bhaut gahree gayee

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

abhi kuchh kah nahin sakta...abhi in bhaavon men doobaa hua hun main....