Wednesday, November 4, 2009

बोझ.....

जरूरी नही कि हर कविता कि भूमिका तैयार की ही जा सके, कुछ कवितायें जीवन का दर्पण होती हैं, या घटनाओं का प्रतिरूप.......

प्रतिरूप..............?

हाँ ये कविता भी प्रतिरूप ही तो है.............!


सोचा था मिल कर,
जिन्दगी की कहानी लिखेंगे.......

तुम आरम्भ हो जाना,
हम अंत हो जायेंगे..........

उस दिन कुछ उम्मीदों को
जन्म दे कर गए थे तुम.......

वो उम्मीदें हैं कि
जवान हो चली हैं.......

पूछती हैं, माँ कहाँ है........

क्या कहूं..............?
यही............?

कि यही सवाल मैं ख़ुद से पूछा करता हूँ.......?

बहला दिया करता हूँ.......
कोई झूठी कहानी सुनाता हूँ,
कोई बहाना बना दिया करता हूँ.....

पर तम्मनाएं..........!
तुम्हारी ही सयानी बेटियाँ हैं......!
तुम जैसी ही कुशाग्र.......!

पकड़ लिया करती हैं....!
मेरा हर झूठ...!

और अब कुछ तो,
कहानियों का अंत भी पूछने लगी हैं.......!

एक रोज़ हमारी एक बेटी,
सबसे छोटी तमन्ना.....
खेल खेल में........

एक रिश्ते का नाज़ुक धागा......
ले आई मेरे पास.......

पूछ बैठी, सबसे जटिल प्रश्न.........!
ये क्या है........?

मैं स्तब्ध भी था, चिंतित भी,
उसे भी जवाब देना था, ख़ुद को भी...

क्या कहता उसे.......
ये वही धागा था.......

जिसका आरम्भ तुम थे,
अंत हम........

मुझे याद दिला गया......

तुम्हारा यूँ चले जाना......
इतनी बेटियों का बोझ,
मुझ अकेले को दे कर......

समझ गया हूँ,
ये बोझ क्या होता है........

लौट आने की,
सांत्वना भी न दे कर गए......

और वो धागा......
जो जोड़ता था,
आरम्भ को अंत से........

अब छूटने लगा है......
मैं कमजोर होने लगा हूँ...........

2 comments:

Asha Joglekar said...

बहुत सुंदर । इतने नये उपमान प्रेम और आशाओं के लिये वाह ।

वर्तिका said...

too too tooo touching..... sach mein dil ki gehraiyon tak bas utar jaati hai yeh nazm.... aur har samvednaa bas theher jaati hai ise padh kar.... main keh nahin sakti ki kiss hadd tak khoobsoorat hai yeh yaa how it feels to just go thru it.... this is something beyond wrds....