बड़ा सुर्ख दिख रहा है लिफाफा,
ख़त खून से न लिख बैठा हो नादाँन,
हाथ कांपते हैं, खोलते हुए,
पर क्या करू,
ख़त ही मेरे नाम है........!
इस कदर नफरत हो चली,
उसे मुझसे,
की हाथ काट बैठा............
कहा करता था...........
उसके हाथों की लकीरों में,
मेरा ही नाम है...............!
मैं भी काटता रहता हूँ,
अपने हाथों अपना ही गला........
मेरा भी यही शगल,
यही अब मेरा भी काम है.............!
4 comments:
Nice poem..
Amazing poet u r... :)
Keep writing....
cheers!!!
इस कदर नफरत हो चली,
उसे मुझसे,
की हाथ काट बैठा............
कहा करता था...........
उसके हाथों की लकीरों में,
मेरा ही नाम है...............!
गौरव जी ख्याल सुंदर हैं आपके और लेखन भी ......गौरव जी ख्याल सुंदर हैं आपके और लेखन भी ......!!
इस कदर नफरत हो चली,
उसे मुझसे,
की हाथ काट बैठा............
कहा करता था...........
उसके हाथों की लकीरों में,
मेरा ही नाम है...............!
इसे नफरत न ही कहें तो बेहतर है, ये तो दीवाने का दीवानापन दिखलाने का एक माध्यम है.............
बहुत ही गहरे भाव, बिचार की आपकी यह रचना पसंद आई....लिखते रहे...............
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com
kyaa baat hai....bahoob bhaayi..... keep it up.....sundar....gahari...!!
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