मेरे कुछ संवेदनशील यार दोस्त अपना अकेलापन मेरे साथ बाँट लिया करते हैं और कभी कभी इसी बात पर मैं उनकी चुटकी भी ले लिया करता हूँ...........ऐसे ही एक मौके पर एक कविता भी अस्तित्व में आ गई.........
खुशबू बन,
महकने का जज्बा ढूंढते,
दीवानों का टोटा है.............
खेल के मैदान छोटे,
घर छोटे,
कमबख्त इस शहर का,
दिल भी छोटा है........
रोज़ी छीनते शिकारियों के,
हुजूम यहाँ,
कुछ रोटी भी छीन लेते.....
कुछ मासूमो के जिस्मो से,
बोटी भी छीन लेते..........
सड़कों की नालियों में,
कीडों के मानिंद.........
बजबजाते लोग........
अलसाते निकलते सुबह,
दिन भर की परेशानियों में,
लिपटे सने घर आते लोग.......
मुर्गी, चूजे जैसा इंसान यहाँ,
दडबों जैसे घर,
जिस्मो से अटी सड़कें,
गलियों में,
बाढ़ से उफनते सर.........
इतनी भीड़ है शहर में,
कि दम घुटता है..........
कमबख्त अब कोई शायर,
ख़ुद को अकेला न लिखे.............
4 comments:
just too gud... felt like की मेरे दिल में अटकी एक बात आपकी कलम कह गयी.... पर हाँ यह ज़रूर है की आपका कहने का अंदाज़ मुझसे बहुत जुदा है... so i just njoyed ur touch in the post... :)
nd d ending note is just the perfect punch...
कमबख्त अब कोई शायर,
ख़ुद को अकेला न लिखे.............:)
वाह गौरव जी आपकी रचना इतनी लाजवाब होतीं हैं की सीधा असर करती है | बहुत सुन्दर | बेजोड़ शब्द |
इतनी भीड़ है शहर में,
कि दम घुटता है..........
कमबख्त अब कोई शायर,
ख़ुद को अकेला न लिखे.............
जबरदस्त उदहारण दिए हैं ......... देखते हैं कि शायर भाई लोग इसकी काट में क्या तर्क - कुतर्क पेश करते है.
बधाई.
kalam gar saath ho to shayar akela kaha hai,
bhavo ke sailaab se nikla shabdo ka mela hai
Metro cities par aapko approach pasand aaya
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