Friday, July 18, 2025

इक आदमी रहता था

बच्चों, एक औरत,

दीवारों खिड़कियों के दरम्यान,

एक आदमी भी, रहता था


उलझनों, खर्चों, तानों, उलाहनों

तीज त्यौहार, सर्दी गर्मी, 

बच्चों की ख्वाहिशों के बीच

इक आदमी भी रहता था


हर बात पे वो कहता

ठीक है कोई बात नहीं,

हर चोट पे कहता, भर जायेगी

कांच के मानिंद, जो खुद रोज टूटता

एक आदमी रहता था


रंगीन अलमारियों, रोशनियों,

बच्चों की हंसी ठिठोली के बीच

एक बेरंग आदमी रहता था


वो घर जिसमें सामान भरा था सब

अरमानों से खाली दिल लिए

एक आदमी रहता था


बिगड़ गए लम्हात पे, 

खुद के, दूसरों के हालात पे,

सब ठीक हो जाएगा, कहता था

उस घर में इक खंडहर सा

आदमी रहता था


जिसको फख्र था घर पे दावे का,

जो दरख़्त था, सख़्त था,

कैसे हवा में घुल गया, वहां

वो जो आदमी रहता था


औलादों की नजर, मैं बुरा न हो जाऊं,

जिसको फिक्र थी अखलाक की,

शराफत पसंद था, मासूम था

इक आदमी रहता था


शोर से पैदा हुए सन्नाटे में,

आफिस के मुनाफे घाटे में,

फल, सब्जी, तेल, आटे में,

लाड़ दुलार के बीच,

बच्चों के मारे चांटे में,

ढूंढता था अपना भी वजूद,

वो, जो उसी घर में,

एक आदमी रहता था


लोग कहते थे, उसमे कुछ अना थी,

घर से आफिस, घर का आदी था,

जिन्दगी की बुझती लौ,

उसमे शायद अब भी रवां थी,

बोलता था कभी कभी,

शायद उसके के भी मुह में ज़बां थी,

ऐसा कोई उस घर में आदमी रहता था,


सुबह उसके बिस्तर पे सलवटें

अब भी मिलती है

उसी के जैसी इक परछाई का

घर से अब भी, आना जाना है

कैसे ताल्लुक बदल गया, घर से उसका

वो जो वहां आदमी रहता था


कैसे उसका होना, न होना हो गया,

कैसे गोया पूरा शख्स फना हो गया,

वो अपने ही घर में मना हो गया

जहां वो रहता था,

एक आदमी रहता था


कैसे वक्त के साथ वो शफ़ाफ़ हो गया?

जिसने इब्तिदा ए ठिकाना किया

क्या हुआ वहां, धीरे धीरे?

शायद, वहां एक आदमी रहता था? 

Wednesday, July 2, 2025

मर्द अक्सर तन्हा होते हैं

जनाजों में, बारातों में,

वस्ल में, मुलाकातों में,

मर्द अक्सर तन्हा होते हैं!


बचपन महफिलों में बीता जिनका,

अक्सर अकेलेपन में, जवां होते हैं,


कुछ उनके जिस्म पे, घाव होते हैं,

कुछ ज़ेहन पे निशां होते हैं,


अपनी ही परछाइयों से

घबराते हैं, बदगुमां होते हैं,

मर्द अक्सर तन्हा होते हैं।


ताउम्र गुरूर में रहने वाले

रोज़ ए हश्र पशेमां होते हैं।


सलीबों के हकदार

अक्सर नौजवां होते हैं।

मर्द अक्सर तन्हा होते हैं।


तरबियत का कर्ज चुकाते,

भले इंसा होते हैं,

मर्द अक्सर तन्हा होते हैं


हर जगह होते हैं,

पर खुद में कहां होते हैं?

मर्द अक्सर तन्हा होते हैं।

Monday, June 23, 2025

मकाम

तो मुहब्बत में...

मकाम अब ये है,

तुम मुझे ढूंढते हो,

मैं दिल ढूंढता हूं..!


ये कैसा सफर है अन्तस,

कभी रास्ता ढूंढता हूं,

कभी मंजिल ढूंढता हूं..!


क्यों तुमसे मिलने में,

तकल्लुफ है,

क्यों बेचैनी है,

हल ढूंढता हूं तो

कभी मुश्किल ढूंढता हूं


तुम्हारे साथ दिल का

ये सौदा जंग हुआ जैसे

पेशियां हैं, मुकदमे हैं,

कभी मुजरिम ढूंढता हूं

कभी मुवक्किल ढूंढता हूं


मैदान ए कर्बला हुई

जिंदगी जैसे,

शहसवार रहा 

के तिफ्ल ढूंढता हूं


तुझे पहचान ने का जरिया,

वो दिल ढूंढता हूं,

जांघ पे तिल ढूंढता हूं


कभी हल ढूंढता हूं,

मुश्किल ढूंढता हूँ,

कभी तिल ढूंढता हूं..!!

हिसाब

 मेरे अशआरों में भी

कोई नक्श आयेगा,

उनके भी मायने होंगे


इंसान हश्र में खड़ा होगा

सामने आईने होंगे


इल्म जमी पे खड़ा होगा,

बुत सूली पे टंगे होंगे


उन सबका वजन होगा अंतस

जो वादे तुमने हमसे कहे होंगे


सब पल ठहरे होंगे

वक्त के सब कांटे

वहीं रुके होंगे


तुम होगे, हम होंगे,

और सब होंगे,..!!


वहां, वसीयत पढ़ी जाएगी,

इमदाद होगी, फैसले होंगे


ये सब होगा,

जब बस हम होंगे

अकेले होंगे..!!


हो चुका होगा हमारा होना

सब खयाल भी,

हो चुके होंगे..!


क्या ही मंजर होगा

बस तुम होगे

और हम होंगे..?


इतनी तफसीली दुनिया से

क्या ही वास्ता होगा

ज़र्रा से तुम होगे

सिफर से हम होंगे


एक लम्हा होगा

तुम होगे और 

हम होंगे..!!

Thursday, May 1, 2025

मैं वक्त हूं..!

मुझे चाहना, और पा लेना,
दो अलग अलग बातें हैं।
इक मुकाम हूं मैं,
सब के हिस्से,
आसानी से नहीं आता।

इल्म हूं, सब्र की इंतहा हूं,
सबक हूं, इंतजार हूं,
आता हूं,
पर आसानी से नहीं आता।

ठहरो, परहेज करो,
वक्त दो, तरजीह दो,
मुश्किल से आता हूं,
आसानी से नहीं आता।

मुझे पाना है तो,
उम्रदराज होना पड़ेगा
तजुर्बा हूं
जो जवानी से नहीं आता
आसानी से नहीं आता।

हक़ हूं, जायदाद नहीं
लड़ने से मिलता हूं,
बदगुमानी से नहीं आता
मुश्किल से आता हूं,
आसानी से नहीं आता

तुम्हे मेरे इंतजार की,
कद्र करनी होगी,
मैं, कायदा हूं,
मेरी अपनी चाल है,
मैं नाफरमानी पर नहीं आता।

मैं वक्त हूं,
आसानी से नहीं आता..!

Monday, April 28, 2025

परिधि

विभेद जिसे समझने में युगों लगे,
अनंत और शून्यता
मिश्रित कर दी हम ने..!

यह हास्य का नया आयाम है
कि अपर्मिति की सीमा,
तय की हमारी मूर्खता ने..!!

जब लाभ हानि प्राथमिक,
मानवता गौण हो गयी..!

जब व्यथा और घृणा,
ससंचित होने लगे
और प्रेम व्यापार हो गया..!

जब सब त्रिकोणमिति शुष्क है,
तो तुम्हारी आद्रता कैसे,
संरक्षित हो सकी?

कैसे भाग्य के समीकरण ने,
विस्मयकारी हल दिया है?

कैसे क्षेत्रफल,
बढ़ गया अकस्मात्,
भाग्य का?

कैसे विन्यासों को,
आवृत्तियों में,
पुनर्गठित किया विधि ने?

कैसे? मैं केंद्र,
जीवन वृत्त, और
"परिधि" संसार हो गया..!