Sunday, November 23, 2014

दुकानें

नया बाज़ार लगा है
दुकाने खुली हैं……

आओ कफ़न के
सौदागरों से मिलते हैं

जाओ देखो।
पहचान लोगे वो दूकान....
आसान है....।

लोकतंत्र को,
आर्थिक कड़ाही में,
उबाल कर राजनीति का,
मुलम्मा चढ़ा कर,
चौथे स्तम्भ की लकड़ी से बने
तख्ते पर रखा हो...।

जहाँ भय को
लालच के साथ
गड्डमड्ड कर के
स्वार्थ का तमाशा नहीं बनाया जाता

परंतु सु-तर्क का
पोस्टमार्टम हो रहा हो
समझ लेना
तुम उनके ही ग्राहक हो...
और वो तुम्हारे...।

किसने किसको खरीदा,
इस से निर्लिप्त आगे बढ़ना।

जहाँ पुरानी फटी धोती में,
गुदड़ी बनी बुढ़िया को,
व्यापारिक कौव्वे
तिल तिल नोचते दिखें।
समझना गंतव्य के निकट हो।
जहाँ बड़ा सा सफ़ेद साफा बांधे
एक बुढ्ढा आदमी
बंजर आँखों से उम्मीद के बादलों की
झूठी कहानी सुनाता हो

मत सुनना, तुम्हे रोना पड़ेगा।

और उसके नाचने पर ना जाना
व्यवस्था की तरह
वह भी अव्यवस्थित हो चूका है

एक दालान है उस से आगे
जहाँ देसी विदेसी नथों का
बाज़ार होगा।

चमकीली नथें
लुभाएंगी......

फुसलावे में मत आना।
वो खुद बहकाये जाने की
शिकायत करती देखी गयी हैं अक्सर..।

तुम को पूरा बाज़ार घूमना होगा।

तो आगे बढ़ कर एक मुट्ठी
आटा भर लेना सामने रखे बोरे में से
जिसमे से पसीने और लहू की
सड़ांध तुम्हारे नथुनों को
चीर देने का माद्दा रखती हो...।

उस मुट्ठी भर आटे को
अपनी कोख में समेट कर
महसूस करना
किसी गाँव में सूखा पड़ा खेत
और एक किसान की
ठंडी फ़िज़ूल पड़ी देह की गर्मी...।
अपनी आकांक्षाओं को तपा कर
उस लाश से....

आगे बढ़ जाना और
काले से पत्थर को ठोकर मार
रास्ते से दूर हटा देना

पर चौंकना मत जब वो पत्थर
खुल कर कुपोषित
चमार के लड़के में बदल जाए

और सड़क के किनारे किनारे रेंगने लगे...

जी भर ठंडी करना आँखे
उस लाल पानी के फव्वारे को देख
जो एक हिन्दू की गर्दन से निकल
मुसलमान की
गर्दन में समा रहा हो..

मैं उस बाज़ार में जाने लायक
न रहा अब।

लौटते हुए आना,
मन भर एहसान करना
रत्ती भर इंसान ले आना...।

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