उमड़ती घुमड़ती,
जिस ममता की छाँव ने,
दी थीं, किलकारियां,
उसके अपमान के दोषी हो तुम...!
कर लिया बहुत,
दुरुपयोग ममता का,
तुमने ही हर लिया शील,
जाने कितनी सीताओं का.......
न दो इतनी पीड़ा,
की अश्रुओं में उसके,
बह जाये तुम्हारा अस्तित्व
तुमने दूध कि मिठास में,
घोला है....
तिरस्कार और अपमान का विष,
भला बताओ......कैसे?
न हो बंजर, धरा भारत की...?
पर अँधेरा बहुत हो चुका,
अब तमस का अंत निकट है...!
किरण एक दिख रही है,
पूरब से.........
लगता है माहताब
आएगा.........!
ये तुम्हारे पैंतरे,
न चलेंगे अब,
न चालबाज़ियों में, बटेंगे और घर....
बच्चों की मासूम आँखों में,
नया, प्यारा ख्वाब आएगा...
हो चुकी बहुत इन्तहा,
जुल्म ओ सितम की अब,
जाग रही है, माँ मेरी,
बहन ने कस ली है कमर,
बदल जाएगी ये दुनिया,
अब आएगा,
तो इन्कलाब आएगा........!
जाओ किनारों से कह दो,
अब सैलाब आएगा..........!
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