कदाचित सम्मान का प्रयोजन है,
याचना नहीं,
विपत्तियां हैं स्वीकार्य,
प्रताड़ना नहीं.....।
पेटी में बंदी,
हीरे और मोती के,
निरर्थक अस्तित्तव का,
बोध है....।
आह, दुर्भाग्य,
प्रेम और स्नेह को,
दुर्बलता माना गया...।
शक्ति पर्याय,
बल स्तम्भ को,
किंचित अवसर न मिला....!
ऊर्जा के विछोभ,
तांडव को उसने,
मोड़ दिया,
स्नेहासिक्त.....।
ह्रदय की अंतरिम,
विमाओं में,
वह शक्ति का पर्याय हो कर भी,
बहे गंगा और सरस्वती बन कर....।
सिंचित है जिसकी श्वास से,
भू, जल और वायु...!
जिसके लिए,
विलास त्यक्त,
आनंद परित्यक्त,
ममता के समक्ष....!
अस्तित्व का मूल,
शक्ति के पर्याय को,
बोध है......।
स्व:प्रकृति का.....!
कदाचित संतुलन का,
कारण तुम ही हो,
धन्य हो.....!
2 comments:
बहुत खूब ...
दिगंबर जी बहुत बहुत धन्यवाद.....!
Post a Comment