Thursday, May 15, 2014

मुतफ़र्रिक

कमबख्त हर रात पिछली रात के जैसी,
हालत-ए-चश्म बरसात के जैसी....।

अपनों ने ही निभाई दुश्मनी
गैरों को क्या फ़िक्र
भला हम खुशगवार रहे
कि रहे ग़मज़दा...!


टकरा के गर
लौट आती फलक से
तो भी सुकून होता...

अफ़सोस तो ये है कि
गले में घुट कर रह गयीं
दुआए मेरी....।

न जाने क्यों,
इतना बेतकल्लुफ़ वो,
हँसता है मेरे दर्द पे
ऐसा भी क्या
उसकी ख़ुशी का
सबब आहें मेरी

No comments: