जब भी.......
यथार्थ की सीमा से परे,
ले जाते हो ........!
तुम तो निराकार हो कर,
रम जाते हो,
सृष्टि में ..........!
परन्तु मेरे भौतिक अस्तित्व पर,
लग जाता है प्रश्नचिन्ह,
मैं अपनी संवेदना को,
कौतुहल में पिरो कर,
जपता हूँ, कुछ अनसुलझे से शब्द ........!
फिर तन्द्रा भंग होने के साथ ही,
उग्र आवेग में बह जाता है,
सारा विश्वास, और ........!
एक क्रान्ति जन्म लेती है,
जिसे तुम्हारी सृष्टि,
अवज्ञा, नास्तिकता,
और ना जाने क्या क्या कहती है,
मैं उस क्रान्ति का,
अंतरिम भाग बन कर भी,
उद्विग्न रहता हूँ ..........!
भ्रम बढ़ता जाता है,
पल प्रतिपल,
अब सुलझा दो इसे,
ये पहेली पीड़ा देने लगी है ..........!
यथार्थ की सीमा से परे,
ले जाते हो ........!
तुम तो निराकार हो कर,
रम जाते हो,
सृष्टि में ..........!
परन्तु मेरे भौतिक अस्तित्व पर,
लग जाता है प्रश्नचिन्ह,
मैं अपनी संवेदना को,
कौतुहल में पिरो कर,
जपता हूँ, कुछ अनसुलझे से शब्द ........!
फिर तन्द्रा भंग होने के साथ ही,
उग्र आवेग में बह जाता है,
सारा विश्वास, और ........!
एक क्रान्ति जन्म लेती है,
जिसे तुम्हारी सृष्टि,
अवज्ञा, नास्तिकता,
और ना जाने क्या क्या कहती है,
मैं उस क्रान्ति का,
अंतरिम भाग बन कर भी,
उद्विग्न रहता हूँ ..........!
भ्रम बढ़ता जाता है,
पल प्रतिपल,
अब सुलझा दो इसे,
ये पहेली पीड़ा देने लगी है ..........!
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मैं उस क्रान्ति का,
अंतरिम भाग बन कर भी,
उद्विग्न रहता हूँ ..........!
......
speachless.......:X
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