Sunday, July 19, 2009

आख़िर मेरे आंसू जाते कहाँ हैं.....................?

अपनी दबी ढकी उम्मीदों, तम्मनाओं को हम अकेले में उलट पुलट कर देखते रहते हैं, कुछ खुशी दे जाती हैं और कुछ दर्द। कभी कभी कोई ऐसी तम्मना भी टकरा जाती है दुबारा हमसे, जो रुला जाया करती है...............और एहसास भी दिला जाती, कि दिल से इन्हे हम कभी नही निकाल पाते हैं ...............

बस अभी साफ़ ही तो किया था.........?
की ये एक पपडी फिर निकलने लगी,

यादों के घाव फिर रिसने लगे,
मैंने कितना ही सुखाया,

धो मांज के रखा, चेतन को,
पर कहीं अवचेतन की दरारों में........

लगी जंग अब फ़ैल कर, रिस कर,
आ रही है, बाहर...........

अशुद्ध हो जाए मन फिर से,
ऐसी आकांक्षा नही,

और ये रिस रहे ज़ख्म,
उन अधूरी इच्छाओं की जड़ें ही तो हैं,

जिन्हें उखाड़ फेकने की,
कोशिश की थी कभी.............
बिल्कुल दूब के स्वभाव वाली........

हर सावन में हरी हो जाती हैं,
और संग में हर घाव भी,

इतने आते जाते मौसम,
सुखा न सके......

कितने ही शीत और ताप
सह कर जीवित हैं,
ये इच्छाएं, नासूर बन कर.......

अब तक तो मर जाना था इन्हे.........

कदापि मैंने ही आश्रय दे रखा हो ?
कहीं सींचता तो नही रहता ?

बरसों से सोच रहा हूँ.........
आख़िर मेरे आंसू जाते कहाँ हैं.....................?

3 comments:

Razi Shahab said...

achcha likha hai aapne
bahut achcha likhte rahiye ga...

प्रिया said...

Behtareen ! shabd nahi hai hamare pass tareef ke liye....kya khoob likha hain aapne .... Bhaav- Vibhor kar diya

Murari Pareek said...

बेहतरीन रचना!! अतृप्त इच्छाओं के घाव और नासूर सबके इसी तरह रिश्ते हैं !!