कई पाठक सामिष भोजन करते होंगे, यह कविता कोई उपदेश नही क्योंकि हो सकता है विचार न ज़मे, कभी मैं भी सामिष का शौकीन था पर अब शाकाहारी हूँ, इस घटना के बाद से ही एक जीव की जान न लेने का प्रण कर लिया..............
कुछ कड़वी यादों को स्टेशन पर छोड़ कर,
लौट रहा था,
वक्त रेंग रहा था, सांप जैसा........
सड़क किनारे, ठेले को घेरे खड़े लोग,
एक कुत्ता, और दूर एक बिल्ली भी.........
ठेले के पास कटे पंजों.....
खून सने पंखों का ढेर......
कुत्ता और बिल्ली दोनों अधीर,
कुछ टुकडों की प्रतीक्षा में,
जो बस गिरने ही वाले थे...........
मैंने ठेले को देखा,
कुछ रुई के ढेर, सिमटे, डरे सहमे.......
वही..........
ब्रीड वाली मुर्गी.........
शायद भविष्य जानते थे अपना,
तभी तो टाँगे छुपा रखी थी.......
डरे हुए बच्चे की तरह.........
एक आवाज़ सुनी.........मांस काटने जैसी...........
लगा वो हथियार मेरी गर्दन पे चला है.........
मैंने आँखें मूँद ली......नज़र चुरा ली.........
पर उस आवाज़ ने अनसुना कर दिया मेरा विरोध,
आ कर कानों से टकरा ही गई.......
एक चीख़ जो निकल ही नही पाई,
उस रुई के ढेर की तो ज़बान ही नही थी.......?
तो चीखा कौन.....?
मेरा मन...........?
ढेर ने किसी को पुकारा...........आओ बचा लो मुझे.......!
क्या मुझे...........?
शायद मैंने सुना था.......
पर वो भीड़ क्यों न सुन पाई जो घेरे खड़ी थी,
उस ठेले को.........?
मैं मुह मोड़ कर चल दिया............
ढेर बोला.........मुझे ज़बान नही मिली.....
वरना चीखता पुकारता.......
ईश्वर को.............
जो उतना ही मेरा है,
जितना मनुष्य का..........
पर ढेर पुकार न सका,
सर्वशक्तिमान को,
होता.........
तो सुनता न..............
उसकी घुटी हुई चीख़............
दोष तो रुई के ढेर का ही है,
उसने छुपा रखा है कुछ सुर्ख.....
अपने भीतर.........
गोश्त............
जो इंसान को..........
नही.....! मनुष्य को.......
कुछ ज्यादा ही पसंद है....?
या शायद शौक है..........?
बिल्ली, कुत्ते की प्रतीक्षा समाप्त.....!
कुछ फड़फड़ाया, फिर शांत.........
रुई का ढेर या मेरा अंतस..........
एक एहसास जिसे लिख नही पाया,
बस वितृष्णा के साथ सुना और महसूस किया........?
एक असफल चीख़, दो थरथराते पंजे,
एक कटा गला, और परों पे बहता सुर्ख लहू........
रुई के ढेर रंगीन होने लगे,
उनके उतारते कपड़े.....वो दो हाथ.......
लगा मेरे ही हैं...........!
कारण भी तो मैं था............?
चेहरे पे विजय भाव,
जैसे कसाई ने जीत ली जंग,
अर्थव्यवस्था के ख़िलाफ़
मुर्गियों को हलाल कर के..........!
कुछ पर और गिरे,
कुछ अतड़ियां और निकलीं........
हलाल चिकन तैयार था.........
किसी मनुष्य की जिव्हा का स्वाद बढ़ाने को,
एक जानवर दूसरे का भोजन बन जाने को........
प्राकृतिक होता तो दोष ईश्वर की ऋचा में था,
पर ये कैसा न्याय...............?
एक का पेट भरे, स्वाद आए,
दूसरे की जान जाए..................?
2 comments:
बहुत ही हृदय विदारक है, पर ये जीभ की स्वाद वाले इंसान कहाँ समझेंगे !! बस तर्क देंगे की पेड़ पोधों मैं भी जीवन होता है !!
आपकी कविता ने झकझोर कर रख दिया। मुझे खुद के शाकाहारी होने पर गर्व है।
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