
दिल्ली शहर मुझे कभी ज्यादा
पसंद नही आया, पर इतना वक्त
गुजार लेने के बाद कुछ बातें तो
समझ आने लगी हैं, फिर भी मेरे
जेहन में बसा गाँव मुझे लगातार
याद आता रहता है, कुछ महसूस
किया मैंने इस शहर में और लफ्जों
की शकल दे दी..........
हमसफ़र है पर हमदम न हो सका,
कोशिश भी न कर सके,
दर्द कम न हो सका.............
कोशिश भी न कर सके,
दर्द कम न हो सका.............
सुख बांटने का दिखावा करते रहे,
दर्द को छुपाये रखा,
अनजाने ही ख़ुद को अपनों से,
अजनबी बनाये रखा...............
अक्स को खो कर भीड़ में,
घर के आईने में ढूँढ़ते रहे,
जुबां सिल कर बैठे हैं,
कोई कहे भी तो कैसे कहे...............
अब जिन्दगी सवाल पूछती है,
जवाब सूझते नही,
सब को एहसास है, सबके दर्द का,
पर एक दूजे से पूछते नही..........
एक ओर मुस्कुराता चेहरा है,
दूसरी ओर उदासी छुपी है,
इस शहर को दोहरी जिन्दगी जीने की,
आदत सी पड़ी है.............
दूसरी ओर उदासी छुपी है,
इस शहर को दोहरी जिन्दगी जीने की,
आदत सी पड़ी है.............
अब तो मेरी भी यही रहगुज़र,
मेरा भी यही घर,
पहले ज्यादा लगता था,
अब कुछ कम ये अजनबी शहर..............
हमदम= soulmate, हमसफ़र= fellow, अक्स= image, reflection,
आइने= mirrors, एहसास= feeling, realization, रहगुज़र= pathway
2 comments:
gud job gaurav bhai...wel said !!!
Wah....aap ke shabdo me jaan hoti hai..gaurav jee.
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