Monday, October 6, 2008

शायद यही मेरे होने की वज़ह हो.........

फिर आज मेरे रूबरू हैं,
मुझे डराने आए हैं, वो सवाल.......
पूछा करता था, मेरा दिल जो मुझसे.........

अब तो न टूटने दोगे कभी........?

एक बिखरते शीशे का दर्द,
उसका अक्स ही समझा होगा,
आइना होता तो, मेरा भी अक्स होता,
किसी ने समझा होता..........

फिर से आज कोई पुरानी रात लौट कर आई है..............
सर्द है, अँधेरी है, अकेली, और मैं भी,

बस कुछ गुज़रे लम्हे याद आते हैं,

कुछ टूट रहा है, पर धीरे धीरे..........


यूँ बिखरना............
जैसे हर पल मरना,
साँस में भरा है ज़हर जैसे.........

नज़र टिक जाया करती है,
जब तब, जहाँ तहां..........
फिर याद करता रहता हूँ, एक चेहरा.........
खूबसूरत..............
प्यार से लबरेज़ आँखें..........

एक और जिंदगी मिली थी जिनसे, मुझे........

क्या हुआ है, पूछे वो,
मुझसे ही हर दफा.........
कैसे कह दूँ, मर्ज़ है कि ज़फा..........

कैसे रुसवा कर दूँ तुझे,
खुश रखने की कसम उठा रखी है, मैंने........

सौंप दिया जो ख़ुद को......
तो जैसे चाहे, तोड़ मुझे,
शायद यही मेरे होने की वज़ह हो.........

No comments: