Saturday, October 4, 2008

मुत्फर्रिक आशार..........

जैसे राह का काँटा हूँ,

याद रहा जो चुभ गया.......

निकला, तो दो पल में ज़माना (वो) भूल गया...........



एक बार फिर सूरज सर पे आने लगा है,

फिर तपती धूप की आहट आई है,

फिर सुलगती ज़मी पे नंगे पाँव चलने का वक्त आया है.............



आधी सी है, अधूरी है,

ये आस भी जैसे झूठी है,

तोडे मुझे रोज़, पर ख़ुद कब टूटी है................


तेरी याद से कुछ यूं लरजती है रात,

करवटें बदलते गुज़रती है रात....!



थरथराते होठो पे रखू निगाह,

की मह्बेखाब आँखे देखू,

रात तमाम तेरे गेसुओं से,

मेरा मशविरा चलता रहा......!


शिद्दत-ओ-दर्द-ए-हिज्र मरने नही देता,

इंतज़ार वस्ल की रात का भी कुछ कम नही,

पथराई नज़र में चुभते हैं, अधूरे ख्वाब,

सिवा इसके बड़ा कोई ग़म नही....!

तेरी आवाज़ भी सुन सकू,

तो रोशन हो दीदए उम्मीद,

और इस से भला मरहम नही...!

आ.........और यूं आ,

की वफ़ा का भरम न टूटे,

मैंने ज़माने को एक दौर तलक,

तेरे नाम की दुहाई दी है,

बेपरवाह सही मेरा पत्थर का सनम नहीं...!

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