Thursday, September 25, 2008

क्या कहूं?

परिंदों को आसमा नसीब हुआ,
हर शै को नवाजिश-ऐ-कायनात,
मुझे दो गज ज़मीन भी न मिली,

कसकती है दिल में बात....................

पैरों तले ज़मीन नही,
पर फख्र से ऊंचा है सर,
रोशन राह करने को,
ख़ुद अपने ही हाथों जलाया है घर...............

हरक़तों में क़यामत की बानगी देखता हूँ,
जूनून देखता हूँ,
अपनी ही आंखों में दीवानगी देखता हूँ...............
नाखून देखता हूँ,
अपने ही जिस्म पे निशाँ देखता हूँ,

फुरकत की घड़ी है,
और ये क्या रंग ले के आई,
दर्द लायी,
बारिश-ऐ-संग ले के आई...........

ये हवा का रुख ना जाने किधर को है,
क्या अजीब सी बात है..............
रिसते हैं यूँ ज़ख्म,
के जैसे लहू की बरसात है..............

मिटने लगी हैं नेजों की लकीरें,
पर दर्द अभी बाकी है,
सर्द हुआ बदन,
पर शायद दिल में गर्म लहू अभी बाकी है........

सुबह का भटका,
मैं भटकता शाम तक चला...............
कभी इन्तहा तक चला,
लो आख़िर, आज मैं अंजाम तक चला...............


परिंदा- Birds, नवाजिश- gift, कायनात- nature, कसकती- feeling, realization
फख्र- proud, क़यामत- end of the world, बानगी- glimpse, sample
जूनून- madness, temptation, passion
दीवानगी- passion, madness, फुरकत- lonliness, isolation, संग- stone, रुख- direction
नेजे- scalpel, knife, इन्तहा- extreme, अंजाम- final condition

1 comment:

Anwar Qureshi said...

बहुत सुन्दर कविता लिखी है आप ने ...बधाई ..