Sunday, May 11, 2008

एक टुकडा फिर सुनहरा हो जाए


रोज़ एक दिन गुज़रता है, मेरे सामने से,
शीशे के टुकड़े के मानिंद,
सालों मैंने कोशिशे की हैं,
इनको खुरचने की,
निशानियाँ दी हैं, अपने ज़ख्मों की...

लहू-लुहान करते रहे हैं, जब तब मुझे....

एक टुकडा सुनहरा गुज़रा था,
जब तुम मिले थे,
फिर हर टुकडा चांदी हो गया था,
मुझे निखारा था, संवारा था, उन दिनों
दिल के आईने में ख़ुद को,
देखना सिखाया था, तुमने....
दुनियादारी की राह पे,
चलना सिखाया था, "तुमने"

मैंने अपने मरतबे तराशे थे,
"तुम्हारा" हाथ थाम कर,
शीशे की इन कतारों के पार जा कर,
जीना सिखाया मुझे..................

सपनो की दुनिया बनाते हैं कैसे,
बताया था मुझे,
फिर कैसे करना है, सच उन्हें....
बताते थे मुझे छू कर..........

जब पहली बार किया कोई सपना सच,
मैंने अपना...........
ख़ुद को पाया था सातवें आसमान पे,
ढूँढा तुम्हे फलक से जमी तलक,
क्योँ नही मिले तब से अब तक......
मैं अब भी बैठ जाता हूँ,
उस सच हुए ख्वाब के पास...........

दोनों झुकते हैं सज़दे में एक साथ...

दोनों की दुआ वही एक...
काश एक टुकडा फिर सुनहरा हो जाए......................

1 comment:

Keerti Vaidya said...

zaberdust ......

kavita ke bhav bahut uttam hai....

likhtey rahey yunhi