Sunday, May 11, 2008

दिल्ली की उदास सी शाम को...........

ये आलम के साँस लेने की फुरसत नही किसी को,
सब अपने बन कर पराये होते,
और फिर से कोई अपना तलाशते.......
जिनकी हथेलियों में लकीरें न रहीं,
बस चंद टुकड़े हरे कागज़ के,
और थोड़े से सिक्के,
यूँ भागते के ज़लज़ला आया,
यूँ चीखते के गर्दन पे नेजे की धार हो,
बस यही तमाशा देखता हूँ दिल्ली की हर उदास शाम को.........

सड़कों पे मासूमों को देखा है,
मोल भाव करते, पाँच बरस की उमर में,
पेन बेचते, या नई पुरानी किताबें..............

सडको पे न जाने कब इनका बचपन छीन ले गया कोई,
एक लड़की को देखता हूँ,
तार तार कपडों में छुपाती हैं ख़ुद को, एक पेड़ की आड़ में,
रात रोज़ लूट लेती है, उसे कई बार.......
हर मर्द अब एक जानवर है बस, उसके लिए...........
मैं नज़रें चुराता हूँ उस से, और ख़ुद से भी......
आगे बढ़ जाता हूँ ख़ुद को कोसता,
दिल्ली की एक उदास सी शाम को........................

कुछ बड़ी अकड़ वाले सर कारों में धसे देखे,
इतराना और ये अकड़ ना जाने पैसे की है,
या काम के बोझ की, मैं सोचता हूँ....
आंखों पे काला चश्मा, बदन पे महंगे कपड़े,
अपना लहू दे कर खरीदे, जो इन्होने,
लहू देने गुडगाँव जाते हैं,
बस "कैब" के "कैदी" हो कर हर रोज़.......
BPO लहू मांगते हैं, ये देते हैं....
वो और मांगते हैं ये और देते हैं...........
आज शाम की अकेली खुशी, मैं इस भीड़ में शामिल नही...........
मैं खुश होता हूँ दिल्ली की उदास शाम को........

मैंने सुना था दिल्ली की शाम सुहानी होती थी,
रही होगी, जब गालिब रहा होगा.......
हर मौसम इंसान के मुताबिक रहा होगा,
अब ना तो पीने को पानी हैं,
न जीने को हवा,
मैली हो चुकी यमुना के किनारे,
मैं खड़ा सोचता हूँ यही,
दिल्ली की एक उदास सी शाम को.................

No comments: