Friday, February 1, 2008

अनिंद्य

जब फूल से दो पंखुडियां नोच लीं,
चुप था कुछ न कहा,
फिर धीरे से मुस्कुरा के बोला,

सर्वस्व तुम्हे अर्पण,
तुम्ही मेरे ईश्वर,
मेरे माली थे तुम,

तुम्ही विनाशक,
तुम्हे देने में,
क्षोभ कैसा,

मैंने महक को जी भर,
मन में उतारा,

कहने लगा,
प्रेम से भी निहारो,
मुझे प्रियतम कहो,
प्राण कह कर पुकारो,

किसी मूर्ती चरणों में ही देना,
अगर फेकना भी,

इतना बड़ा ह्रदय,
पुष्प का?
तुमसे प्रेरणा ले कर,
पुष्प बना,
तुम्हारी समीक्षा करने को,
मेरे पास कसौटी नही।

तुम अनिंद्य.

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