बड़े ही विचित्र क्षणों में......विचित्र अनुभवों की एक श्रृंखला से साक्षात्कार हुआ........भौतिक परिवर्तनों का, विचित्र आभाषों का, सर्वशक्तिमान से इन सबका और सबसे अपने अस्तित्व के सम्बन्ध का विश्लेषण करते करते लेखनी का सहारा ले लिया तो विश्लेषण का रूप कुछ कुछ कविता जैसा दिखने लगा.......ह्रदय ने कहा पोस्ट कर देना चाहिए.
परिवर्तन.....अवश्यम्भावी.......!
फिर इतना.........
अनापेक्षित क्यों प्रतीत होता है......?
संभावित तो सदैव.......
विस्तृत या लघु रूप ले कर,
संज्ञान में रहते ही हैं......!
प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष आभाष,
इन संज्ञानो को.....
आकृति भी देते रहते हैं.......!
सम और विषम संभावनाओं को,
इतना परिचय तो पर्याप्त होता है,
अकस्मात् के आत्मसात के लिए.........!
गुण-दोष, राग-विराग को,
भली भाँती, समझता है 'अंतस'....!
फिर विडम्बनाओं का अस्तित्व,
मंथन प्रदेश में रहने का औचित्य क्या है.........?
अप्रतिम अतुलनीय से,
साक्षात्कार की भूमिका.........
प्रारम्भ हो चुकी संभवतः............!
फिर शंकाओं का स्रोत, कोई आधार....
अभी तक शेष क्यों.....?
त्याज्य और ग्राह्य का विभेद......
अति सरल.......!
और सम्पादन,
अत्यधिक दुष्कर...........!
कदाचित संभव.......!
परिवर्तन ही रचना है.....!
एक अन्य मूल प्रश्न की..........!
परन्तु कहीं यह भी,
बौद्धिक क्लिष्टता का,
कोई संजाल तो नहीं.........?
समानातर और संयुग्मी,
होते रहने वाले आभाष,
बढ़ा देते हैं, स्थैतिक जटिलता..........!
अधिक संज्ञान,
अधिकाधिक विभ्रम.....!
अंततः....यह भौतिक परिवर्तन,
समस्या का मूल.........
कदाचित अधिक अथवा कम...........!
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