एक दोयम सी दुनिया, पक्का सा वास्ता....
सुलगी सी परछाइयाँ, आगे आगे,
ठहरा ठहरा सा ये मुल्क बजाफ्ता.....
निरे ढूह बुर्ज ईमान के,
गिरी पड़ी वफादारियों की हवेलियाँ,
ज़मीर-मरीज़-ऐ-बे-दम हांफता......
रिजवान-ऐ-अवाम को,
अब कहाँ काफिरी की फ़िक्र,
पुर्जे कागज़ के महंगे, लहू सस्ता....
दरकार-ऐ-दीद और कुछ नहीं,
बस वो मख्लूकात-इंसान,
उसका छोटा ईमान का एक पुश्ता............
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