Thursday, November 11, 2010

अधिकार........

डरता था, शोर से,
अँधेरे से, भीड़ से.........

जो फैला रहता था......
हर और.......

घर से बाहर निकलते ही......
डर हाथ पकड़,
कानों पर धर दिया करता.......

आँखें मूँद, घुस जाया करता,
फिर से.......घर में........

घर बचा लेता, शोर से........

पापा बचा लेते....
भीड़ भरी सड़कों की,
उस घुटन भरी,
धक्का मुक्की से.............

और माँ बचा लेती,
हर अँधेरे ख्वाब,
हर काली परछाई से.....

वो गोद, वो आँचल,
वो कनिष्ठा ऊँगली........
हर मुसीबत के विरूद्ध,
ढाल होते...............

एक अंतर्मुखी बच्चे को,
इस से ज्यादा चाहिए भी क्या था.........?

फिर समय बदला......

वो आँचल, वो संबल,
पापा की वो कनिष्ठा...........

सब अलग कर गया......

जाते जाते डर तो ले गया,
छोड़ गया घुटन को......
हमराह बना कर...........

रोज़ घोंटती हैं काली रातें...........
विश्वास और इच्छाशक्ति का गला,

अँधेरे ख्वाब हर रोज़,
उम्मीदों की,
हत्या कर जाते हैं.........

समय तुम्हे भी छोड़ गया था......
समीप..........

तुम्हारे प्रेम में,
माँ का आँचल ढूँढा,
पिता का संबल....

कहीं त्रुटि रह गयी शायद......

अविश्वसनीय हैं परन्तु......
तुम्हारे प्रेम में......

उस डरावने अँधेरे, घुटन से,
अक्सर साक्षात्कार,
होता ही रहता हैं..........

उस अंतर्मुखी बालक को,
घुटन से मुक्ति पाने का......

कोई अधिकार हैं क्या.........?

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