Tuesday, January 28, 2014

संबध...........!



मैं अर्थ की परिभाषा,
ढूंढता रहा......
तुमने इति को रच दिया.......?

मैं शब्दों में वाक्य ढूंढ रहा था,
तुमने छंद रच दिया......?

ये निष्पादन, ये रचनाएं,
कितनी विलक्षण और प्राकृतिक हैं,
पर तुम्हारा स्वभाव......?

यही प्रश्न लिए......!
बुद्ध भटके, इशु सूली चढ़े,
तो अब कौन....?

तुमसे मैंने अपने सम्बन्ध का,
मूल खोज लिया है.......!

रचो, प्रफुल्लित हो,
और नष्ट करो......!

तुम्हारी इस क्रीडा में,
मेरा आनंद तो नहीं,
पर हाँ, भय है.............!

अनंत भय,

और पीड़ादायी....!

काली सी इक बाती है...........!






इतनी उजली कि जहाँ भर,
रोशन कर डाला..........!

पर दमकती लौ के बीच भी,
काली सी एक बाती है............!

थकान से यूं तो हर शाम दमकती है,
बदन की लौ.......

पर इसके बीच भी बसी है,
विछोह की परछाई..

कोशिशें अब भी उतनी ही संजीदा हैं,
पर नींद कहाँ आती है.........?

न जाने कहा से ढूढ़ लिया है,
मुसीबतों ने इस घर का पता,
एक उधर से जाती है,
एक इधर से आती है...........!

दमकती लौ के बीच भी,
काली सी एक बाती है........!

जिंदगी इस कदर होगी खुशमिजाज़,
अंदाजा ही न था,
एक दफा मुस्कुराता क्या हूँ,
ये बरसों मज़ाक उडाती है...!

दमकती लौ के बीच भी.....!

बारहा इतना सुकून है,
चाँद को नमूदार देख,
हर अमावास की रात...!

कि तुम्हे भी शिद्दतन,
मेरी याद तो आती है.........!

बतौर इलाज़ बना ली थी मैंने,
दिन चढ़े मह्बे-ख्वाब देखने की आदत,
कमबख्त बिस्तर पे अकेली मेरी रात,
हर वहम झुठलाती है.......!

हर दमकती लौ के बीच,
काली सी इक बाती है......!