मिटा के अरमां,
उजाड़ गया आशियाँ,
इसे ही तो तूफ़ान कहते हैं..........
एक तूफ़ान आया,
और चला गया
न अब वो हमें शोना कहते हैं......
न हम उन्हें जान कहते है..........
Thursday, November 5, 2009
लडाइयां.......
ह्रदय से अंतर्द्वंद ही,
हरा देता हैं मुझे...........
यूँ तो कितने ही किले,
फतह किए मैंने...........
हरा देता हैं मुझे...........
यूँ तो कितने ही किले,
फतह किए मैंने...........
वो मेरे हर्फ़ क्या समझेगा..........
कहते हैं लोग.....
गूँज सन्नाटे की है,
आवाज़ सबसे तेज़..............
तो इक सवाल उठ गया दिल में........
जो मेरी चुप्पी न समझा,
वो मेरे हर्फ़ क्या समझेगा..........
गूँज सन्नाटे की है,
आवाज़ सबसे तेज़..............
तो इक सवाल उठ गया दिल में........
जो मेरी चुप्पी न समझा,
वो मेरे हर्फ़ क्या समझेगा..........
अजीब है मयकदा मेरा.......!
इस से बढ़ कर,
और क्या मुफलिसी होगी......?
की आज बिक जाने को,
राज़ी हूँ मैं.........
किस्मत से चुक गया हूँ,
मयस्सर नही,
दस्त-ऐ-खाक भी,
बस ईमान से,
थोड़ा बाकी हूँ मैं...........
अजीब है मयकदा मेरा.......!
ख़ुद मैं ही ग़म, मय भी मैं,
पैमाना भी ख़ुद, और जाम मैं,
जामनोश ख़ुद, ख़ुद साकी हूँ मैं..........
टूटा था बिखरता था.........!
तो कौन दस्त आगे बढ़ा.......?
छुपाते छुपाते, इक अश्क छलका,
यूँ बदनाम हो गया........
कि ज़ज्बाती हूँ मैं...............
जीत न सका, हालात से,
न उनसे.......
पर ख़ुद को ख़त्म कर देने को,
काफ़ी हूँ मैं........
उनसे तो मौत बेहतर,
जब छोड़ चले सब, तो पुचकारती है,
कहती हैं.................
आ तुझे गले लगाती हूँ मैं............
और क्या मुफलिसी होगी......?
की आज बिक जाने को,
राज़ी हूँ मैं.........
किस्मत से चुक गया हूँ,
मयस्सर नही,
दस्त-ऐ-खाक भी,
बस ईमान से,
थोड़ा बाकी हूँ मैं...........
अजीब है मयकदा मेरा.......!
ख़ुद मैं ही ग़म, मय भी मैं,
पैमाना भी ख़ुद, और जाम मैं,
जामनोश ख़ुद, ख़ुद साकी हूँ मैं..........
टूटा था बिखरता था.........!
तो कौन दस्त आगे बढ़ा.......?
छुपाते छुपाते, इक अश्क छलका,
यूँ बदनाम हो गया........
कि ज़ज्बाती हूँ मैं...............
जीत न सका, हालात से,
न उनसे.......
पर ख़ुद को ख़त्म कर देने को,
काफ़ी हूँ मैं........
उनसे तो मौत बेहतर,
जब छोड़ चले सब, तो पुचकारती है,
कहती हैं.................
आ तुझे गले लगाती हूँ मैं............
नई शुरुआत...........
यूँ निचोड़ ली,
जिस्म से जान उसने...
जाते जाते कह गया......
ये आखिरी मुलाकात थी...
इधर जो रही थी,
जनाजे की इब्तेदा......
उधर.......
जोड़े और मेहंदी की बात थी.......
हम उस पल को ही,
जिन्दगी मान जीते रहे.......
जो उसके लिए,
आम सी इक बरसात थी.......
इन्तहा सितम की,
हमने तब जानी, जब वो बोला,
गर बेपनाह मोहब्बत की,
तुने क्या नई बात की...........
आख़िर लगा ही लिया,
मौत को गले,
इस तरह हमने,
नई जिंदगी की शुरुआत की..........
जिस्म से जान उसने...
जाते जाते कह गया......
ये आखिरी मुलाकात थी...
इधर जो रही थी,
जनाजे की इब्तेदा......
उधर.......
जोड़े और मेहंदी की बात थी.......
हम उस पल को ही,
जिन्दगी मान जीते रहे.......
जो उसके लिए,
आम सी इक बरसात थी.......
इन्तहा सितम की,
हमने तब जानी, जब वो बोला,
गर बेपनाह मोहब्बत की,
तुने क्या नई बात की...........
आख़िर लगा ही लिया,
मौत को गले,
इस तरह हमने,
नई जिंदगी की शुरुआत की..........
Wednesday, November 4, 2009
ऐ गर्दिश अब तो......
किसी महफिल में,
रुसवा न करा दे तू मुझे.....
बस यही सोच कर,
मैं कभी, दिल की न सुन सका.....
ऐ गर्दिश अब तो तरस खा मुझ पर........
कमबख्त तू.....!
मेरी धडकनों से भी,
ज्यादा चाहती है क्या मुझे.......?
जुदा हो भी जा अब......!
जीने दे सुकून के कुछ पल,
कुछ रोज़ को तो मेरा,
साथ छोड़ दे...........!
इक रूह बची है आखिरी,
इसे तो बेचने को,
मजबूर न कर............
तू बेहया है,
तो मैं......!
शर्मिंदा रहता हूँ..........!
चंद टूटी दीवारों में,
छुपा रहता हूँ..........
कहीं यार लोग,
न दे दें, आवाज़ महफिल के लिए.....
आज पी ली, तो कल पिलानी होगी.......
इस दाना-ऐ-ख़ाक को भी,
महफिल की रवायत निभानी होगी.......
रुसवा न करा दे तू मुझे.....
बस यही सोच कर,
मैं कभी, दिल की न सुन सका.....
ऐ गर्दिश अब तो तरस खा मुझ पर........
कमबख्त तू.....!
मेरी धडकनों से भी,
ज्यादा चाहती है क्या मुझे.......?
जुदा हो भी जा अब......!
जीने दे सुकून के कुछ पल,
कुछ रोज़ को तो मेरा,
साथ छोड़ दे...........!
इक रूह बची है आखिरी,
इसे तो बेचने को,
मजबूर न कर............
तू बेहया है,
तो मैं......!
शर्मिंदा रहता हूँ..........!
चंद टूटी दीवारों में,
छुपा रहता हूँ..........
कहीं यार लोग,
न दे दें, आवाज़ महफिल के लिए.....
आज पी ली, तो कल पिलानी होगी.......
इस दाना-ऐ-ख़ाक को भी,
महफिल की रवायत निभानी होगी.......
बोझ.....
जरूरी नही कि हर कविता कि भूमिका तैयार की ही जा सके, कुछ कवितायें जीवन का दर्पण होती हैं, या घटनाओं का प्रतिरूप.......
प्रतिरूप..............?
हाँ ये कविता भी प्रतिरूप ही तो है.............!
सोचा था मिल कर,
जिन्दगी की कहानी लिखेंगे.......
तुम आरम्भ हो जाना,
हम अंत हो जायेंगे..........
उस दिन कुछ उम्मीदों को
जन्म दे कर गए थे तुम.......
वो उम्मीदें हैं कि
जवान हो चली हैं.......
पूछती हैं, माँ कहाँ है........
क्या कहूं..............?
यही............?
कि यही सवाल मैं ख़ुद से पूछा करता हूँ.......?
बहला दिया करता हूँ.......
कोई झूठी कहानी सुनाता हूँ,
कोई बहाना बना दिया करता हूँ.....
पर तम्मनाएं..........!
तुम्हारी ही सयानी बेटियाँ हैं......!
तुम जैसी ही कुशाग्र.......!
पकड़ लिया करती हैं....!
मेरा हर झूठ...!
और अब कुछ तो,
कहानियों का अंत भी पूछने लगी हैं.......!
एक रोज़ हमारी एक बेटी,
सबसे छोटी तमन्ना.....
खेल खेल में........
एक रिश्ते का नाज़ुक धागा......
ले आई मेरे पास.......
पूछ बैठी, सबसे जटिल प्रश्न.........!
ये क्या है........?
मैं स्तब्ध भी था, चिंतित भी,
उसे भी जवाब देना था, ख़ुद को भी...
क्या कहता उसे.......
ये वही धागा था.......
जिसका आरम्भ तुम थे,
अंत हम........
मुझे याद दिला गया......
तुम्हारा यूँ चले जाना......
इतनी बेटियों का बोझ,
मुझ अकेले को दे कर......
समझ गया हूँ,
ये बोझ क्या होता है........
लौट आने की,
सांत्वना भी न दे कर गए......
और वो धागा......
जो जोड़ता था,
आरम्भ को अंत से........
अब छूटने लगा है......
मैं कमजोर होने लगा हूँ...........
प्रतिरूप..............?
हाँ ये कविता भी प्रतिरूप ही तो है.............!
सोचा था मिल कर,
जिन्दगी की कहानी लिखेंगे.......
तुम आरम्भ हो जाना,
हम अंत हो जायेंगे..........
उस दिन कुछ उम्मीदों को
जन्म दे कर गए थे तुम.......
वो उम्मीदें हैं कि
जवान हो चली हैं.......
पूछती हैं, माँ कहाँ है........
क्या कहूं..............?
यही............?
कि यही सवाल मैं ख़ुद से पूछा करता हूँ.......?
बहला दिया करता हूँ.......
कोई झूठी कहानी सुनाता हूँ,
कोई बहाना बना दिया करता हूँ.....
पर तम्मनाएं..........!
तुम्हारी ही सयानी बेटियाँ हैं......!
तुम जैसी ही कुशाग्र.......!
पकड़ लिया करती हैं....!
मेरा हर झूठ...!
और अब कुछ तो,
कहानियों का अंत भी पूछने लगी हैं.......!
एक रोज़ हमारी एक बेटी,
सबसे छोटी तमन्ना.....
खेल खेल में........
एक रिश्ते का नाज़ुक धागा......
ले आई मेरे पास.......
पूछ बैठी, सबसे जटिल प्रश्न.........!
ये क्या है........?
मैं स्तब्ध भी था, चिंतित भी,
उसे भी जवाब देना था, ख़ुद को भी...
क्या कहता उसे.......
ये वही धागा था.......
जिसका आरम्भ तुम थे,
अंत हम........
मुझे याद दिला गया......
तुम्हारा यूँ चले जाना......
इतनी बेटियों का बोझ,
मुझ अकेले को दे कर......
समझ गया हूँ,
ये बोझ क्या होता है........
लौट आने की,
सांत्वना भी न दे कर गए......
और वो धागा......
जो जोड़ता था,
आरम्भ को अंत से........
अब छूटने लगा है......
मैं कमजोर होने लगा हूँ...........
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